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संत पापा फ्रांसिस साईप्रस में संत पापा फ्रांसिस साईप्रस में  संपादकीय

एक धैर्यपूर्ण कलीसियाः संत पापा का धर्मसभा प्रक्रिया पर प्रकाश

साईप्रस में संत पापा के शब्दों में ख्रीस्तीय समुदायों की पहचान व्यक्त हुई जहाँ उन्होंने आतीत की महानता या पुरानी यादों के झरोखे में झांके बिना, सहचर्य को लोग के विकास का मूलमंत्र बतलाया।

अन्द्रेया तोरनेल्ली

साईप्रस के छोटे, लेकिन एक बेहद संजीदा ख्रीस्तीय समुदाय से बातें करते हुए संत पापा फ्रांसिस ने गुरूवार को उन मूल्यवान बातों जिक्र किया जो वैश्विक कलीसिया में शुरू हुई धर्मसभा की एक प्रकिया को प्रस्तुत करता है। साईप्रस द्वीप के संरक्षक संत बरनाबस के मनोभावों की चर्चा करते हुए उन्होंने उनके विश्वास, सामंजस्य और उसके बढ़कर उनके धैर्य की चर्चा की।

जब उन्होंने आंतखिया के नये ख्रीस्तीय समुदाय की भेंट करने को कहा गया जहाँ गैरख्रीस्तीय ने ख्रीस्तीयता को आलिंगन किया था, प्रेरित ने उन लोगों से मुलाकात की जो विश्व के विभिन्न स्थानों, संस्कृतियों और धार्मिक रिवाजों से आये। उनका विश्वास जोश से भरा था लेकिन अपने में कमजोर था। बरनाबस ने, यद्यपि उनका स्वागत किया, उन्हें सुनते हुए उनकी प्रतीक्षा की। वे इस बात से वाकिफ थे “वृक्ष को बढ़ने में समय लगता है”, उन्होंने उनके जीवन में प्रवेश करने हेतु इंतजार किया और धैर्य में बिना पक्षपाती भावों से उन्हें स्वीकारा। “यह चिंतन में धैर्यपूर्ण बने रहना था जिसके द्वारा उन्हें हर जगह ईश्वर के कार्य की अनुभूति हुई”।

इससे भी बढ़कर संत पापा फ्रांसिस को बरनाबस का धैर्यपूर्ण सहचर्य आश्चर्य़चकित करता है। उन्होंने धैर्य में बने रहते हुए नये विश्वासियों को बिना दबाव के विकासित होने दिया, उन्होंने उनसे नियमों के अनुपालन में अत्यधिक मांग नहीं की।

वर्तमान जीवन आतीत के जीवन प्रणाली से मेल खाता हैः क्या हम एक ऐसे समय से नहीं गुजर रहे हैं जहाँ सुसमाचार की घोषणा “दूसरी दुनियाओं” और “दूसरी संस्कृतियों” को अपनी ज्योति से आलोकित करने में संघर्षरत जान पड़ती हैॽ

पुरानी बातों के लुप्त होने की स्थिति में, हम उदासीन रवैये के आगे झुक जाते हैं, टीका-टिप्पणी करने लगते हैं या हम समाज में उस कलीसिया की “महत्वपूर्ण” की बात सोचते हैं जिसका प्रभुत्व आतीत में था। ऐसी विकट परिस्थिति में संत पापा फ्रांसिस मुरझाते यूरोप के विश्वास की ओर ध्यान आकर्षित कराते हुए हमें प्रेरित बरनाबस के मनोभावों, धैर्य में बने रहते हुए और करूणा का साक्ष्य देते हुए विशेष कर युवा पीढ़ी में सुसमाचार घोषित करने की प्रेरणा लेने को कहते हैं।

धैर्यपूर्ण कलीसिया अपने में जड़ित नहीं अपितु पवित्र आत्मा के आश्चर्यजनक कार्य हेतु खुली है। यह समरूप नहीं क्योंकि यह जानती है कि किसी भी वार्ता का केन्द्र-बिन्दु सुनने में धार्मिक मनोभावों का उपयोग करती है अर्थात यह विभिन्न विचारों या भावनाओं का स्वागत करती, विविधता की समृद्धि का आदर करती जिसे पवित्र आत्मा एकता में लाते हैं। यह दूसरों का स्वागत करना है जिससे वे अन्यों को स्थान दे सकें।

कलीसिया में तर्क-वितर्क हो सकते हैं लेकिन यह हमें विभाजित नहीं करती हैं। “हमारा तर्क-विर्तक करना अपने विचारों को थोपने हेतु नहीं होता लेकिन यह प्रेम और एकता में आत्मा की प्रेरणा को जीने और कार्यों में समाहित करना है। हम वाद-विवाद करने के बाद भी भाई-बहन बने रहते हैं”, जैसे कि यह किसी भी परिवार में होता है। यह अनुसरण करने एक मार्ग है ताकि धर्मसभा सामान्य नौकरशाही कर्तव्य न बन जाए जहाँ प्रेरिताई योजना को कार्यान्वित करने में चूक हो या धार्मिकता विनिमय रणनीतियाँ बन रह जायें- जो वर्तमान समय की आधुनिक धर्मपरिवर्तन स्वरुप हैं । संत पापा हमें याद दिलाते हैं कि “हमें एक भ्रातृत्वमय  कलीसिया की आवश्यकता है, जो कि हमारी दुनिया में भाईचारे का संचार करे”।

 

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04 December 2021, 09:43