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ससम्मान सेवानिवृत संत पापा बेनेडिक्ट १६वें १४ मई २००९ को नाजरेथ शहर में ससम्मान सेवानिवृत संत पापा बेनेडिक्ट १६वें १४ मई २००९ को नाजरेथ शहर में  

संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें का कार्यकाल

दिवंगत ससम्मान सेवानिवृत पोप बेनेडिक्ट सोलहवें का पद महत्वपूर्ण था और "ईश्वर को केंद्र में वापस लाने" के लक्ष्य पर केंद्रित था।

वाटिकन न्यूज-वाटिकन सिटी

अपने इस्तीफे के साथ, संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें ने कलीसिया के इतिहास में प्रवेश किया। परमाध्यक्ष के रुप में संत पापा जॉन पॉल द्वितीय(1978-2005) की एक चौथाई शताब्दी की तुलना में उनके लगभग आठ साल शानदार नहीं थे। बेशक जर्मनी बवेरिया के "प्रोफेसर",  विशालकाय पोलिश पापा संत जॉन पॉल द्वितीय के उत्तराधिकारी बनना नहीं चाहते थे, उन्हें अपनी  सीमाओं के बारे में पता था, लेकिन चुनाव के "गिलोटिन" में आने के बाद, उन्होंने दृढ़ता से सोचा: "एक दिग्गज पापा के बगल में एक छोटा पापा को भी होना चाहिए, जो अपना योगदान दे सके।" पहले ही, जोसेफ रत्ज़िंगर ने खुद को एक छोटे और मेहनती परमाध्यक्ष के रूप में देखा था।

संत पापा और "कलीसिया का धुंधला चेहरा"

संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें का प्रशासन काल शुरु से ही संकट और चुनौती भरा था। कुछ आलोचक संत पापा बेनेडिक्ट के लगभग आठ साल को दुर्घटनाओं की एक श्रृंखला के रूप में देखते हैं। यह 2006 के रेगेन्सबर्ग भाषण से शुरू हुआ, जिसने मुस्लिम दुनिया को नाराज किया, कलीसिया के यौन दुर्व्यवहार के घोटालों के प्रबंधन के लिए एक परंपरावादी और होलोकॉस्ट खंडनकर्ता धर्माध्यक्ष रिचर्ड विलियमसन का चुनाव, 2012 वैटिलिक्स घोटाला का जिक्र नहीं करना, जिसमें कई गोपनीय दस्तावेजों को सार्वजनिक कर दिये गये और इस घटना में संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें के करीबी सहयोगियों में से एक सेवक भी शामिल था।

मीडिया और सार्वजनिक राय ने परमधर्मपीठ के आंतरिक और बाहरी मामलों की गंभीर त्रुटियों के लिए पहले व्यक्ति संत पापा को दोषी ठहराया था। संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें ने बिना किसी हिचकिचाहट के गलती स्वीकार कर लिया था। साथ ही, इस संकट के दौरान कलीसिया के नेताओं ने एक समूह के रूप में अपने हितों की रक्षा करने के इरादे से पूरी गलती के लिए सिर्फ कलीसिया को जिम्मेदार स्वीकार नहीं किया। स्तीफा देने के पहले संत पापा ने संत पेत्रुस महागिरजाघर में पवित्र राख बुधवार के दिन पवित्र यूखरीस्तीय समारोह के अवसर पर रोमी कार्यालय के सदस्यों की उपस्थिति में कहा कि कैसे "कलीसिया के चेहरे को कभी-कभी कुरुप बना दिया जाता है।" "मैं विशेष रूप से कलीसिया की एकता के खिलाफ अपराध को देखते हुए कलीसिया के विभागों में बदलाव लाने के बारे में सोच रहा हूँ।" उन्होंने व्यक्तिगत और प्रतिद्वंद्विता को दूर करने के लिए "कलीसिया के साथ संयुक्त रहते हुए, दृश्यमान समुदाय में रहने की सलाह दी।" येसु ने "धार्मिक पाखंड", "दिखावा" की निंदा की थी। सच्चा शिष्य ... स्वंय या जनता की सेवा नहीं करता, बल्कि ईश्वर की सेवा करता है।..."

इसमें कोई संदेह न था कि संत पापा बेनेडिक्ट सोहवें एक असाधारण प्रशासक थे। फिर भी, रोम में उनके साथ वर्षों से रहने वाले आश्चर्यचकित हैं कि संत पेत्रुस के उतराधिकारी पर विश्व से यहाँ तक कि अपने मूल जर्मनी से भी अस्वीकृत मुद्दों की कमी नहीं थी।

ऐसा लगता है कि वे खुद को बचाने की कोशिश भी नहीं करना चाहते थे: "साहस आक्रामकता में हाथ फेंकने में नहीं,  बल्कि खुद की कमजोरियों को स्वीकार करने और प्रमुख विचारों के मानदंडों का सामना करने में है।" संत पापा ने जनवरी 2013 में संत पेत्रुस महागिरजाघर में कहा था, "मौजूदा विचारों की स्वीकृति वह मानदंड नहीं है जिसे हम जमा करते हैं। मानदंड खुद ईश्वर है। अगर हम उसे अपने आप को देते हैं, तो ईश्वरीय कृपा के साथ हम सुसमाचार को अधिक से अधिक अपने जीवन में जी सकेंगें। अधिक से अधिक हम में मानवीय गुणों का विकास होगा। इसके साथ ही अनिवार्य रूप से हम उन लोगों द्वारा पीटे जायेंगे जो सुसमाचार का विरोध करते हैं।"

इस दृष्टिकोण से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने न केवल परमाध्यक्षीय रोमी कार्यालय में ठोस परिवर्तन और सुधारों के लिए अपने आप को समर्पित किया था : वाटिकन बैंक ‘आईओआर’ में रुपये के लेन देन के खिलाफ घोटाले में पारदर्शिता के लिए भी वे जिम्मेदार थे। अतः उन्होंने सक्षम धर्माध्यक्षों को नियुक्त किया और पहले के धर्माध्यक्षों को बिना किसी हिचकिचाहट के इस्तीफा देने के लिए कहा, इससे पहले किसी ने भी ऐसा करने की हिम्मत नहीं की थी।

संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें का संदेश सार्वजनिक राय के लिए लगभग अतिसंवेदनशील था। एक मौन संदेश, इसे सुनने के लिए एकचित्त और ध्यान की आवश्कता होती है। केवल इस तरह से ईश्वर की इच्छा को विश्वास की खुशी द्वारा सीखा जा सकता है।

"हमने प्यार महसूस किया है"

 बुजुर्ग अवस्था में कार्यभार संभालने वाले परमाध्यक्षों में से एक संत पापा बेनेडिक्ट ने कहा, "कलीसिया जीवित है, कलीसिया युवा है।" "विश्वास आसान है।" "ख्रीस्तीय होना बहुत अच्छा है।" "जिनके पास उम्मीद है वे इसे अलग-अलग तरीकों से जी सकते हैं।" "जो विश्वास करता है वह कभी अकेला नहीं है।" "जहां ईश्वर हैं, वहाँ  भविष्य है।" "दिल का लंगर ईश्वर के सिंहासन पर टिका रहता है।" "यदि आप शांति चाहते हैं, तो सृष्टि की रक्षा करें।" गहन विचारक रात्ज़िंगर ने एक बार विश्वास के आवश्यक बिन्दुओं को एक साथ लाने के लिए आकर्षक सूत्र बनाया था।

संत पापा ने 2005  में अपने पहले विश्वपत्र, ‘देउस कारितास एस्त’ अर्थात ‘ईश्वर प्रेम है’ में इस बात को व्यक्त किया था "हमने प्यार में विश्वास किया है। इस प्रकार ख्रीस्तीय अपने जीवन की मौलिक इच्छा को व्यक्त कर सकता है।" "ख्रीस्तीय धर्म की शुरुआत न केवल नैतिक इच्छा या एक महान विचार से हुई, बल्कि एक व्यक्ति के साथ हुई मुलाकात की एक घटना है, जो हमारे जीवन को एक नया क्षितिज देता है और इसके साथ ही निर्णायक दिशा भी देता है। विश्वास और ख्रीस्तीय जीवन का केंद्र प्यार है। ईश्वर हमारे करीब आते हैं और हमसे बहुत ज्यादा प्रेम करते हैं और खीस्तीय धर्म इसी प्रेम का प्रत्युत्तर है। प्रेम से प्रेम बढ़ता है। यह दिव्य है क्योंकि यह ईश्वर से आता है और हमें अपने साथ जोड़ता है।..."धर्मशास्त्री वुल्फगैंग बेइनर्ट मानते हैं कि ‘देउस कारितास एस्त’ कलीसिया का एक महान दस्तावेज है, जो कोई भी इस विश्व पत्र को गंभीरता से लेता है उसका जीवन बदलना चाहिए।"

इसमें कोई संदेह नहीं कि संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें की बोली में मिठास और वाकपटुता है। वे प्राचीन कलीसिया के धर्माचार्यों और परंपरा के विद्वान हैं। उन्होंने विश्वास और तर्क जैसे विरोधी ध्रुवों के सुलह के लिए लड़ाई लड़ी थी। वे धर्मशास्त्र के ज्ञाता हैं और ईश्वर में पुत्र सुलभ विश्वास है। नास्तिकों और गैर-विश्वासियों के साथ वार्ता में उन्होंने नीति सिद्धांत का पालन किया। "सापेक्षता" के खिलाफ उन्होंने लड़ाई लड़ी और अपने कार्यालय में किसी पर आश्रित होने के बदले इस्तीफा दे दिया।

वे द्वितीय वाटिकन महासभा से पहले प्रचलित पूजन विधि और पुनर्वास को पसंद करते थे। फिर भी, परमाध्यक्ष के रूप में अपने आखिरी प्रदर्शनों के दौरान, उन्होंने कई लोगों द्वारा भ्रामक रूप से "पुराना मिस्सा" कहलाए जाने की कमियों पर इस बिंदु को स्पष्ट किया: "धार्मिकता की समृद्धि और गहराई" इतनी सीमित है कि "पुरोहितों के रोमन मिस्सल (पुजन पद्धति)"  और लोक धर्मी जो अपनी प्रार्थना किताबों के साथ प्रार्थना करते हैं" वे लगभग दो समानांतर पूजनविधि  बन गई है।" कलीसिया में पहले के वर्षों में विवादास्पद कार्रवाई दिखायी गयी थी। "वास्तव में वेदियों की धर्मविधि और विश्वासियों की धर्मविधि एक ही होना चाहिए और लोकधर्मियों की सक्रिय साझेदारी होनी चाहिए।"

पक्षपात के बिना संवाद

शुरु से ही, संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें ने संत पापा जॉन पॉल द्वितीय की तुलना में इस्लाम के साथ संवाद में अनेक सीमाओं और बाधाओं को देखा था और जानबूझकर या अनजाने में रितिसबन में उनका भाषण 11 सितंबर के बाद मुस्लिमों के लिए स्पष्ट अनुरोध रहा था क्योंकि उन्होंने हिंसा का इस्तेमाल किया था। फिर भी, इन्होंने इस्लामी विचारकों के साथ एक काथलिक-मुस्लिम फोरम बनाकर एक नई वार्ता की शुरू की। सन् 2006 के अंत में उन्होंने इस्तांबुल के ब्लू मस्जिद में प्रार्थना के लिए इकट्ठा किया। यह, "मक्का और मदीना के पवित्र स्थानों के संरक्षक" सऊदी राजा अब्दुल्ला द्वारा निजी सुनवाई में उनके स्वागत हेतु पहला कदम था। इसके परिणामस्वरूप, अब्दुल्ला ने 2012 में वियेना में पारस्परिक बातचीत के लिए एक केंद्र स्थापित किया: इस्लामी विद्वान यहां धार्मिक स्वतंत्रता पर चर्चा कर सकते हैं। संत पापा ने बेनेडिक्ट एक बहुत ही सच्चे और स्पष्ट स्वर में संवेदनशील मुद्दों पर बातचीत का नेतृत्व किया। लंबे समय तक, यह धार्मिक वार्ता के लिए भी अच्छा रहा है। इस्लामी विद्वान मौहानद खोर्चाइड ने कहा कि काथालिक और मुसलमानों के बीच "वास्तविक जीवन के मामलों" में यह "तत्काल समझौता" था।

यहूदी धर्म के साथ संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें का रिश्ता?

 यहूदियों के साथ विवादास्पद "पवित्र शुक्रवार प्रार्थना" पर बहस के बाद, मीडिया द्वारा उन्हें परेशान होना पड़ा। राज्य सचिवालय की राय के खिलाफ, वे 2006 में पोलैंड के ऑशविट्ज़ यातना शिविर की यात्रा करना चाहते थे : वे जर्मनी के परमाध्यक्ष के रुप में अपनी विशेष जिम्मेदारी से अवगत थे। संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें ने यहूदियों को ईश्वर के चुने हुए लोगों के रुप में देखा, न कि  ईश्वर द्वारा अस्वीकृत लोगों के रूप में। वे रब्बियों के मित्र थे, उन्होंने कोलोन, रोम और न्यूयॉर्क में यहूदियों के प्रार्थनालयों का दौरा किया। दुनिया में, कई लोगों ने इसे गतिहीन माना। हालांकि, ओर्थोडोक्स ख्रीस्तियों के प्रति महान प्रगति देखी गई। वे प्राधिधर्माध्यक्ष बार्थोलोम के मित्र हैं। प्राधिधर्माध्यक्ष बार्थोलोम ने एक बार सिस्टीन चैपल में धर्माध्यक्षों के लिए प्रार्थना की अगुवाई की थी।

कुछ प्रोटेस्टेंट और काल्विनों में ऐसे भी थे, जो पूर्व धर्माध्यक्ष मार्गोट कैस्मान की तरह, इस पापा से कुछ भी उम्मीद नहीं करते थे। उस समय जब वे विश्वास एवं धर्मसिद्धांत के लिए बनी परमधर्मपीठीय परिषद के अध्यक्ष थे, “दोमिनुस येसुस” की घोषणा के साथ रात्ज़िंगर ने उनकी सहानुभूति को खो दिया था। यह बयान काथलिक अर्थ में कलीसिया के भीतर प्रोटेस्टेंट को नहीं पहचानती थी (शुरुआत में उसने पहले प्रोटेस्टेंट की स्थिति की पुष्टि की थी, लेकिन प्रोटेस्टेंट वास्तव में कलीसिया के प्रति अलग विचार रखते थे।) वे उन्हें "कलीसियाई समुदायों" का नाम देना चाहते थे। इसलिए शुरुआत से ही, सुधारवादी कलीसियाओं ने संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें के साथ भयपूर्ण रवैया रखा था, हालांकि कलीसिया में जितने भी परमाध्यक्ष आये उनमें से निस्संदेह संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें सबसे बड़े ईशशास्त्री हैं। एक प्रोफेसर, धर्माध्यक्ष और परमाध्यक्ष के रूप में अपने कार्यकाल में उन्होंने संत अगुस्तीन को संदर्भित किया, बाइबिल को विश्वास के नियम के रूप में संदर्भित किया और हमेशा इस बात की याद दिलाते आ रहे हैं कि मनुष्य पूरी तरह से ईश्वर के प्यार और अनुग्रह पर निर्भर है। इस प्रकार यह मात्र संयोग नहीं था कि इनके सहयोग से लूथरन वर्ल्ड फेडरेशन के साथ औचित्य के सिद्धांत पर संयुक्त घोषणा तक पहुंच गई थी। तथ्य यह है कि बाद में कई सुसमाचार प्रचारकों ने इसे खारिज कर दिया था, जो रात्ज़िंगर को बहुत प्रभावित किया होगा। कई लोग 1999 के औचित्य सिद्धांत और 2000 के “दोमिनुस येसुस” के संयुक्त घोषणा के बीच एक संबंध देखते हैं।

2011 में संत पापा की एक बैठक एरफर्ट के अगुस्तीनियन मठ में लूथर के अनुयायियों के साथ हुई थी। वहां, संत पापा ने कहा (शायद बहुत खुलेआम) कि वह "सार्वभौमिक उपहार" नहीं लाया था।  उन्होंने मार्टिन लूथर को ईश्वर की खोज करने वाले व्यक्ति के रूप में पहचाना, जिन्होंने ख्रीस्तियों को अपना जीवन सुधारने के लिए बहुत जोर दिया। वे चाहते थे कि सभी ख्रीस्तीय एक बार फिर अपने विश्वास को दुनिया के प्रकाश में लायें। सबसे पहले, उन्हें अपनी गहरी आस्था के बारे में चिंता करनी चाहिए और ऐसा करने से दुनिया में स्वतः सार्वभौमिक विश्वास प्रकट होगा। हमें अपने विश्वास को गहराई से जीने के लिए एक दूसरे को की मदद करनी चाहिए।

ईश्वर की खोज करनेवाले संत पापा

संत पापा ने आदर्श वाक्य "सच्चाई के सहयोगी" से यह प्रकट किया कि आज दुनिया को एक ईश्वर, "मानव चेहरे वाले ईश्वर" को घोषित करना है। ईश्वर ने खुद अपने आप को येसु के रुप में प्रकट किया है।  

आज मानव की असली समस्या यह है कि मनुष्यों ने क्षितिज से ईश्वर को गायब कर दिया है और ईश्वर से आने वाली रोशनी को बुझा दिया है, मानवता के दृष्टिकोण में परिवर्तन आ गया है। वर्तमान समय में कलीसिया और संत पेत्रस के उतराधिकारी का प्रथम कर्तव्य लोगों को उस ईश्वर की ओर ले जाना जो बाइबल के माध्यम से लोगों के साथ बातें करते हैं। "इसलिए संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें ने ब्रह्मचर्य, महिला याजक, सहभागिता या यौन समस्याओं आदि को सबसे जरूरी समस्या के रूप में नहीं देखा गया था, लेकिन पश्चिमी समाज में ईश्वर में विश्वास की तीव्र गति से हो रही कमी को सबसे बड़ी और मौलिक समस्या के रुप में देखा था।  

बाइबल के ज्ञाता संत पापा के जीवन में कभी-कभी "विरोधाभास का संकेत" देखने को मिलता था। संत पापा बेनेडिक्ट के विरोधाभासों में से एक यह था कि वे अपने विश्वास की सभी शक्तियों के बावजूद अपने पूर्व के परमाध्यक्षों की तुलना में एक अज्ञात ईश्वर की खोज में लगे रहे। कलीसिया के भीतर और अनेक ख्रीस्तीय उन्हें रूढ़िवादी मानते थे। परंतु संत पापा गैर-विश्वासी पुरुषों और महिलाओं की तलाश में लगे रहे। उनके सुझाव पर, वाटिकन ने 2011 में ‘कोरतीले देई जेन्तीली’ अर्थात ‘गैर-यहुदियों का आंगण’ में बुद्धिजीवियों और कलाकारों के साथ के कुछ गंभीर मसलों पर बातचीत की पहल की गई।

असीसी में पहली बार धर्म और कलीसिया की परिधि से उपर उठकर संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें ने दूसरे धर्मों और गैर-विश्वासियों के प्रतिनिधिमंडल को संत फ्राँसिस के मध्यकालीन शहर असीसी में शांति यात्रा के लिए आमंत्रित किया। संत पापा बेनेडिक्ट सोलहवें की उपस्थिति को इक्कीसवीं शताब्दी के मानवतावाद के रूप में रेखांकित किया गया। विश्वासियों और गैर-विश्वासियों ने मिलकर मध्यकालीन शहर असीसी में शांति जुलूस में भाग लिया। शांति जुलूस के दौरान पेरिस की नारीवाद और मनोविश्लेषक जूलिया क्रिस्टेवा संत पापा के बहुत करीब थीं। उन्होंने संत पापा बेनेडिक्ट में "धर्मनिरपेक्ष मानवता में उनके विश्वास" - एक व्यापक अर्थ में - धर्मनिरपेक्ष यूरोप में उनकी आस्था" की प्रशंसा की।

एक धार्मिक समुदाय का प्रमुख होते हुए भी अनुसंधान की यात्रा में जोसेफ रात्सिंगर को दुविधाएँ और संदेह कमजोर कर देती थीं। जब वे तुबिनगेन में प्रोफेसर थे तभी उन्होंने "अनिश्चितता की दुनिया" को अपने विश्वास की एकमात्र संभावित जगह के रूप में देखा" और उन्होंने शून्य में गिरने के लगातार खतरे के तहत “आस्था” को “संदेह” रुपी नमक पानी से घिरा हुआ भी देखा। "जो कोई भी विश्वास की अनिश्चितता से बचने का नाटक करता है उसे अविश्वास की अनिश्चितता से निपटना होगा।"

 ये संत पापा के लिए सिर्फ असामान्य विचार नहीं हैं। यह एक नया दृष्टिकोण भी है, क्योंकि कार्डिनल जॉनफ्रान्को रावसी स्पस्ट करते हैं कि विश्वासी और गैर-विश्वासी लोग एक दूसरे के शत्रु नहीं हैं, लेकिन एक दूसरे के बगल में खड़े होकर एक ही दिशा में जीवन के मौलिक प्रश्नों को देखते हैं।

(यह निबंध स्टीफन वॉन केम्पिस का “संत पापा फ्राँसिस - कौन है, आप क्या सोचते हैं, आपको किसका इंतजार है,” एक अद्यतन (अपडेटेड) संस्करण है एल.इ.वी. 2013, पृष्ठ 3-43)

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31 December 2022, 11:53