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संत पापाः ख्रीस्तीय समुदाय बुजुर्गों की सेवा करे

संत पापा फ्रांसिस ने बुजुर्गावस्था पर अपनी धर्मशिक्षा माला को जारी रखते हुए पेत्रुस की सास की चंगाई पर चिंतन किया और बुजुर्गों की देख-रेख पर पुनः जोर दिया।

दिलीप संजय एक्का-वाटिकन सिटी

वाटिकन सिटी, 15 जून 2022 गुरूवार, (रेई) संत पापा फ्रांसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर संत पेत्रुस महागिरजाघर के प्रांगण में जमा हुए सभी विश्वासियों और तीर्थयात्रियों का अभिवादन करते हुए कहा, प्रिय भाइयो एवं बहनों सुप्रभात।

हमने संत मरकुस के सुसमाचार अनुसार पेत्रुस की सास की सरल और हृदयस्पर्शी चंगाई का वृतांत सुना। सुसमाचार के इस अंश को हम संत मत्ती और संत लूकस के संयुक्त सुसमाचार में भी पाते हैं। संत मरकुस लिखते हैं, “सिमोन की सास बुखार में पड़ी हुई थी”(1.30)।  हम यह नहीं जानते कि यह एक साधारण बुखार था लेकिन बुढ़ापे की अवस्था में एक साधारण बुखार भी हमारे लिए खतरा हो सकता है। जब आप बूढ़े हो जाते तो आप का अपने शरीर पर कोई नियंत्रण नहीं रहता है। हर एक को अपने में यह निर्णय लेना होता है कि क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं। हर व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी इच्छा को परिशुद्ध करे- धैर्यवान बना रहे और अपने जीवन के लिए उन चीजों का चुनाव करे जो शारीरिक संकेत के रुप में उसके लिए आता है। बुजुर्गावास्था में हम युवाओं की भांति उन चीजों को नहीं कर सकते जिन्हें हम एक समय करते थे। शरीर की अपनी गति है और हमें उसे सुनने और उसके अनुरूप कार्य करने की जरुरत है।

बुजुर्गों में बीमारी के क्षण

बीमारी का भार बुजुर्गों में एक नये और अगल तरीके से आता है जो युवा और व्यस्कवास्था से भिन्न होता है। यह एक कठिन झटके की भांति होता है जो एक मुश्किल समय में हमारे ऊपर गिरता है। बुजुर्गावस्था में बीमारी का आना मृत्यु की निकटता का आभास देता है, ऐसी कोई भी परिस्थिति हमारे जीवन अवधि को और भी नग्ण्य करती प्रतीत होती है। यह हममें इस तरह के विचार उत्पन्न करता है कि हम और चंगाई प्राप्त नहीं करेंगे, शायद “यह अंतिम बार है जब मैं बीमार हो रहा हूँ...”। कोई भी व्यक्ति भविष्य की आशा नहीं करता यदि वर्तमान परिस्थिति उसके लिए एकदम धूमिल-सी लगती हो। एक सुप्रसिद्ध इतालवी लेखा, इतालो कालभीनो इस बात को रेखांकित करते हैं कि बुजुर्गावास्था की कड़वाहट नई चीजों के आने से खुश होने के बदले, पुरानी चीजों के खोने का शोक मनाते हैं। आज का सुसमाचार जिसे हमने सुना हमें आशा में बने रहने की एक शिक्षा देता है। येसु अकेले उस बुजुर्ग नारी के पास नहीं जाते बल्कि वे अपने शिष्यों के साथ उसके पास जाते हैं। हम इस तथ्य पर थोड़ा चिंतन करें।

ख्रीस्तीय समुदाय की जिम्मेदारी

संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि ख्रीस्तीय समुदाय को चाहिए कि वे बुजुर्गों की देख-रेख करें- जिसका संबंध हमारे संगे संबंधी और मित्रगण से है। हमें अधिक संख्या में, एक साथ मिलकर बुजुर्गों की भेंट बारंबार करनी चाहिए। हम सुसमाचार की तीन पदों को कभी न भूलें विशेष कर वर्तमान परिवेश में जब बुजुर्गों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है, यह इसलिए भी जरुरी है क्योंकि हम जनसांख्यिकीय सर्दी को पाते हैं जहाँ हमारे बीच युवाओं की संख्या कम और बुजुर्ग अधिक हैं। हमें बुजुर्गों से भेंट करने हेतु उत्तरदायी होने की जरुरत है जो बहुधा अपने में अकेले रहते हैं जिन्हें हम अपनी प्रार्थनाओं के द्वारा ईश्वर को चढ़ाते हैं। येसु हमें स्वयं इस बात की शिक्षा देते हैं कि हमें कैसे उन्हें प्रेम करने की जरुरत है। “एक समाज सही अर्थ में जीवन का स्वागत तब करता है जब वह बुजुर्गावस्था के मूल्य को पहचानता, उनकी कमजोरियों, गंभीर बीमारी और यहाँ तक की मरणावस्था में भी उनका स्वागत करता है” (जीवन हेतु परमधर्मपीठीय विद्यपीठ,19 फरवरी 2014)। जीवन सदैव हमारे लिए मूल्यवान है। येसु जब बुजुर्ग बीमार नारी को देखते तो अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाकर उसे स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते, उसे खड़ा होने में मदद करते हैं। अपने करूणामय कार्य के द्वारा येसु ख्रीस्त अपने शिष्यों को प्रथम शिक्षा देते हैं- मुक्ति की घोषणा या बेहतर रुप में कहा जाये, उसका संचार बीमार व्यक्ति की देख-रेख करते हुए किया जाता है, और उस बीमारी नारी का ईश्वर पर विश्वास, जो उनकी ओर करूणा में झुकते हैं, कृतज्ञता से जगमगा उठता है। संत पापा ने बुजुर्गावस्था पर अपनी धर्मशिक्षा की ओर ध्यान आकर्षित कराते हुए कहा कि इस फेंके जाने की संस्कृति में बुजुर्गों को मिटा दिया जाता है। उन्हें मारा नहीं जाता लेकिन सामाजिक रुप में दूर कर दिया जाता मानों वे हमारे लिए भार हों- हम उन्हें छुपाने में उचित समझते हैं। यह मानवता के प्रति धोखा है जो अपने में बहुत बुरी बात है। यह जीवन का चुना उपयोगिता के अनुसार करना है जहाँ हम युवावस्था को प्रथामिकता देते और बुजुर्ग जीवन को उनकी कमियों के कारण अलग कर देते हैं। बुजुर्गो के पास हमारे लिए देने के लिए बहुत कुछ है, उनके पास जीवन का ज्ञान है। हमें सीखाने के लिए बुहत सारी चीजें हैं और इसलिए हमें चाहिए कि हम अपने बच्चों को उनकी देख-रेख करने की शिक्षा दें जिससे वे उनके पास जायें। युवाओं और नाना-नानियों के बीच की वार्ता समाज के लिए आधारभूत शिला है। वे कलीसिया के लिए नींव, स्वस्थ्य जीवन के आधार हैं। युवाओं और बुजुर्गों के बीच यदि वार्ता का अभाव है तो यह एक कभी को दिखलाती है और हम एक पीढ़ी को अतीत के बिना जड़विहीन बढ़ता पाते हैं।

शिष्यों का प्रशिक्षण

संत पापा ने कहा कि यदि हमें पहली शिक्षा येसु के द्वारा मिली तो दूसरी शिक्षा बुजुर्ग नारी के द्वारा मिलती है जो उठकर “सेवा करने” लगती है। बुजुर्गावस्था में भी एक व्यक्ति समुदाय की सेवा कर सकता है। यह बुजुर्गों के लिए अच्छा है कि वे अलग रहने की भावना पर विजयी होते हुए अपने को सेवा के लिए उत्तरदायी पाते हैं। येसु उनका परित्याग नहीं करते हैं इसके विपरीत वे उन्हें सेवा की शक्ति से भर देते हैं। संत पापा ने इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट कराया कि इस घटना पर सुसमाचार लेखक कोई विशेष बल नहीं देते हैं, यह साधारण रुप में घटित होता है, शिष्य समय के अनुरूप अपने को शिक्षित होता पाते जिसे वे अपने प्रशिक्षण काल में येसु के संग विद्यालय में अनुभव करते हैं। बुजुर्गजन जो अपने में चंगाई, सांत्वना, अपने प्रिय जनों के लिए प्रार्थना सुने जाने की परिस्थिति में रहते- चाहे वे शिष्य, शतपति, अपदूतग्रस्त जिनका परित्याग कर दिया गया- अपने में कृतज्ञता का शुद्धतम साक्ष्य अपने विश्वास के माध्य हमारे लिए प्रस्तुत करते हैं। यदि बुजुर्गजनों का परित्याग और उन्हें अस्वीकार करने के बदले, हम उन्हें अपने ध्यान के क्रेन्द-विन्दु में रखते तो वे कृतज्ञता में ईश्वर की महत्वपूर्ण प्रेरिताई को पूरा करेंगे, जो किसी को नहीं भूलते हैं। बुजुर्गों का ईश्वर से मिले उपहार के प्रति कृतज्ञता, जैसे कि पेत्रुस की सास हमें बतलाती है, हमारे सामुदायिक जीवन को खुशी से भर देती और हमें शिष्यों के विश्वास से पोषित करती है।

प्रार्थना और सेवा

संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि हमें प्रार्थना और सेवा के भाव को उचित रुप में समझने की जरुरत है जिसे येसु अपने सभी शिष्यों को सीखलाते हैं, यह केवल नारियों के लिए नहीं है। कृतज्ञता में सुसमाचारी करूणामय सेवा के भाव का व्याकरण किसी भी रुप में नहीं लिखा गया जहाँ हम नर को इसका स्वामी है और नारी को उसकी सेविका स्वरुप पाते हों। यद्यपि यह हमें इस सच्चाई से अलग नहीं करता कि नारी कृतज्ञता और करूणा रूपी विश्वास में, नर को उस सारी चीजों को समझने में मदद करती है जो अति कठिन है। पेत्रुस की सास ने येसु की राहों का अनुसार करते हुए शिष्यों को यह दिखलाया। येसु की विशेष करूणा जहाँ वे “हाथ पकड़ते” और “उसे उठाते हैं” स्पष्ट रूप में शुरू से ही हमें यह दिखलाती है कि वे कमजोर और बीमारों के प्रति विशेष संवेदनशील हैं, जिसे ईश्वर के पुत्र स्वरूप उन्होंने निश्चित ही अपनी माता से सीखा।

संत पापा ने अपनी धर्मशिक्षा के अंत में पुनः इस बात पर जोर देते हुए कहा कि हम यह कोशिश करें कि बुजुर्गजन, नाना-नानी, दादा-दादी अपने संतानों, युवा लोगों के निकट रहें जो अपनी यादों को साझा करते हुए उनके संग जीवन के अनुभवों, जीवन के ज्ञान को बांटते हैं। हम ऐसा इस हद तक करें कि समाज में भविष्य हेतु आशा और अधिक बनी रहे। 

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15 June 2022, 16:39