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संत पापाः बुजुर्गों में आध्यात्मिकता की जीवटता

संत पापा फ्रांसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह में सिमियोन और अन्ना के जीवन की ओर ध्यान आकृष्ट करते हेतु बुजुर्गावस्था में आध्यात्मिक संवेदनशीलता का जिक्र किया।

दिलीप संजय एक्का-वाटिकन सिटी

संत पापा फ्रांसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन के अवसर पर संत पापा पौल षष्टम के सभागार में एकत्रित सभी विश्वासियों और तीर्थयात्रियों का अभिवादन करते हुए कहा, प्रिय भाइयो एवं बहनों सुप्रभात।

बुजुर्गावस्था पर आज की धर्मशिक्षा माला में हम सुसमाचार लेखक द्वारा दो बुजुर्गों, सिमियोन और अन्ना पर किये गये चित्रण का जिक्र करेंगे जो उनकी कोमलता को व्यक्त करती है। दुनिया से विदा लेने के पूर्व, वे ईश्वर से मिलन की राह देखते हैं। सिमियोन पवित्र आत्मा से मिली प्रकाशना में इस बात से वाकिफ था कि मुक्तिदाता के दर्शन किये बिना वह मृत्यु को प्राप्त नहीं करेगा। अन्ना प्रतिदिन ईश-मंदिर में अपनी निष्ठापूर्ण सेवा देती। वे दोनों येसु में ईश्वर की उपस्थिति को पहचानते हैं जो उनकी लम्बी प्रतिक्षा को सांत्वना से भर देता और वे इस जीवन से विदा लेते हैं।

आध्यात्मिकता से भरे इन दो बुजुर्गों से हम क्या शिक्षा ले सकते हैंॽ

बुजुर्गावस्था की चाह

सर्वप्रथम, हम इस बात को सीखते हैं निष्ठा में इंतजार हमारी इंद्रियों को परिशुद्ध करता है। इसके साथ ही हम जानते हैं कि पवित्र आत्मा हमारी इंद्रियों को प्रकाशित करते हैं। प्राचीन गीत, आओ सृजनहार जिसे आज भी गाते हुए हम पवित्र आत्मा को अपनी इंद्रियों खोलने, हमें प्रकाशित करने का निवेदन करते हैं। “हमारे विचारों को अपनी ज्योति से प्रज्जवलित कर”। पवित्र आत्मा हमारे लिए यह करने के योग्य हैं, वे हमारी आत्मा के विचारों को, उनकी त्रुटियों और घावाओं के बावजूद तीक्ष्ण बनाते हैं। बुजुर्गावस्था हमारी शारीरिक संवेदनाओं को किसी न किसी रूप में क्षीण बना देती है। यद्यपि, बुढ़ापे की अवस्था जो ईश्वर का इंतजार करते में बीतती है उनके आने से अछूता नहीं होती, इसके विपरीत यह उनकी उपस्थिति को और अधिक गहराई से समझने हेतु तैयार रहती है। ख्रीस्तीय मनोभाव ईश्वरीय मिलन हेतु सचेत रहता है क्योंकि ईश्वर हमारे जीवन में प्रेरणाओं के साथ, हमें बेहतर बनाने आते हैं। संत अगुस्टीन कहते हैं,“मुझे ईश्वर के आने का भय है, तुम क्यों भयभीत होते होॽ, हाँ, मैं भयभीत होता हूँ क्योंकि मेरी अज्ञानता में मुझे से हो कर चले जायें”। यह पवित्र आत्मा हैं जो हमारी इंद्रियों को तैयार करते हैं, जिससे हम उनकी उपस्थित को समझ सकें, जैसे कि उन्होंने सिमियोन और अन्ना के संग किया।

बुजुर्गावस्था की जीवटता

संत पापा ने कहा कि आज हमें इसकी और भी अधिक आवशयकता है, बुजुर्गावस्था जो सजीव आध्यात्मिकता के भरी है ईश्वरीय उपस्थिति की निशानियों को समझने में सक्षम होती है विशेषकर उन निशानियों को जो यह प्रकट करते हैं कि येसु ख्रीस्त कौन हैं। एक निशानी हमें चुनौती देती है, येसु हमें सदैव अपनी चुनौती देते हैं, क्योंकि वह हमारे विपरीत जाती है (लूका.2.34) लेकिन यह हमें खुशी से भर देती है। यह जरूरी नहीं कि हर चुनौती हमारे लिए उदासी लायें, बल्कि चुनौती में प्रभु की सेवा करना हमें शांति और खुशी से भर देता है। आध्यात्मिक इंद्रियों की संवेदनहीनता-यह अपने में बुरी है- शरीर में उत्साह और स्तब्धता, यह समाज में एक व्यापक सिंड्रोम है जो युवाओं के भ्रम उत्पन्न करता है, और इसकी खतरनाक विशेषता यह है कि हम अधिकतर इससे अपने को अनजान पाते हैं। हमें एहसास नहीं होता कि हम चेतनाविहीन हैं। यह सदैव हमारे साथ घटित हुआ और होता रहता है। हम अपने को चेतनाविहीन में पाते हैं, हम अपने में यह नहीं समझ पाते हैं कि हमें क्या हो रहा है, हमें अपने में इस बात का पता नहीं लगता हैं कि यह ईश्वर की उपस्थिति है यह बुरी आत्मा की।

संवेदनशीलता खोने के कारण

संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि जब हम स्पर्श या स्वाद के अनुभव को खो देते तो हमें इसकी अनुभूति शीघ्र होती है। यद्यपि हम अपनी आत्मा के संबंध में इसे लम्बें समय तक अनदेखा करते हैं। यह केवल ईश्वर या धर्म के बारे में सोचने की बात नहीं है। आध्यात्मिक इंद्रियों की असंवेदनशीलता का संबंध करुणा और दया, शर्म और पश्चाताप, निष्ठा और भक्ति, कोमलता और सम्मान, स्वयं के लिए और दूसरों के लिए जिम्मेदारी से है। संवेदनहीनता में हम करुणा को नहीं समझते हैं, यह हमें दया नहीं समझती है, कोई बुरा काम करने पर हमें शर्म या पछतावा का अनुभव नहीं कराती है। अचेतन आध्यात्मिक इंद्रियां हर चीज को भ्रमित करती हैं और व्यक्ति को आध्यात्मिक रूप में चीजों का अनुभव करने में बाधक बनती है। बुजुर्गावस्था यदि हम कहें तो संवेदनशीलता को खोने का पहला शिकार होता है। एक समाज जो मुख्य रूप से आनंद के लिए संवेदनशीलता का प्रयोग करती है, वहाँ हम कमजोरियों पर ध्यान देने की कमी, और विजेताओं के बीच प्रतिस्पर्धा को प्रबल रुप में पाते हैं। इस तरह हम अपनी संवेदनशीलता को खोते हैं। निश्चित रुप में, समावेश की बातें परंपारिक औपचारिता होती है जो राजनीतिक व्याख्यान का सूत्र है। लेकिन यह सामान्य सह-अस्तित्व की प्रथाओं पर  वास्तविक सुधार नहीं लाती है, और हम समाज में सुकोमलता संस्कृति के विकास को संघर्ष करता पाते हैं। मानवीय भ्रातृत्व की भावना जो हमारे लिए जरुरी है अपने में तिरस्कृत वस्त्र की भांति है जो संग्रहालय में पाया जाता है। हम मानवीय संवेदनशीलता को खोता पाते हैं जो हमारे मानवीय होने के लिए जरूरी है।

यह सत्य है, हम असल जीवन में बहुत से युवाओं को देख सकते हैं जो भ्रातृत्व की भावना का सम्मान करते हुए इसे सजीव बनाने की कोशिश करते हैं, और इसके लिए हम उन्हें कृतज्ञता के भाव अर्पित करते हैं। लेकिन इस परिस्थिति में हम एक समस्या को पाते हैं, सामाजिक कोमलता के सार और अनुरूपता के बीच एक खाई, एक शर्मनाक खालीपन को जो युवाजनों को पूर्णरूपेण अपने को अलग तरीके से प्रस्तुत करने को मजबूर करती है। हम इस खालीपन को कैसे भर सकते हैंॽ

प्रौढ़ता हेतु नायक बनें 

सिमियोन और अन्ना के जीवन की घटनाओं, के अलावे धर्मग्रंथ में आत्मा से प्रेरित बुजुर्गजनों के वृतांत में हम कई गुप्त संकेतों को बाते हैं जिन्हें हमें सामने लाने की जरुरत है। वास्तव में, सिमियोन और अन्ना की संवेदनशीलता को प्रज्वलित करने वाले रहस्योद्घाटन में क्या शामिल हैॽ यह एक बालक को पहचाने में सम्माहित है जिसके द्वारा ईश्वर अपने को उन्हें प्रकट करते हैं। वे अपने को नायकों के रुप में नहीं बल्कि साक्ष्यों स्वरुप स्वीकारते हैं। जब कोई व्यक्ति अपने को नायक के रूप नहीं बल्कि एक साक्ष्य के रुप में देखता तो वह अपनी ठोस प्रौढ़ता को प्राप्त करता है। अपने जीवन में नायक स्वरुप बढ़ने की चाह होना चाहिए, यदि ऐसा नहीं होता तो बुजुर्गावस्था के मार्ग में व्यक्ति कभी प्रौढ़ नहीं होता है। ईश्वर से भेंट उनके जीवन का स्वरुप नहीं है, यह उन्हें बचाने वाले के रुप में प्रस्तुत नहीं करता है। ईश्वर उनकी पीढ़ी में शरीरधारण नहीं करते लेकिन आने वाली पीढ़ी के अंग होते हैं। संत पापा ने कहा कि वे जो उत्साह को खोते वे प्रौढ़ता में जीवन जीने की क्षमता खो देते हैं। वे अपनी संवेदनशीलता में चीजों का अनुभव नहीं करते हैं। क्योंकि वे अपने को सुस्त, खोया हुआ पाते जिसके कारण वे ऐसा नहीं कर पाते हैं। एक पीढ़ी का अपनी चेतना को खोना बुरी बात है। वहीं सिमियोन और अन्ना की संवेदनशीलता को देखना अपने में आश्चर्यजनक है जो उत्साह में बने रहते और विभिन्न परिस्थितियों को, मुक्तिदाता की उपस्थिति को समझने के योग्य बनते हैं। उनमें किसी बात की कोई नाराजगी और दोषारोपण नहीं है। बल्कि वे अपने को बृहद आनंद और सुखद स्थिति में पाते हैं। वे अपनी आत्मा की प्रेरणा में इस बात को व्यक्त करते हैं कि उनकी पीढ़ी नष्ट या बेकार नहीं हुई है बल्कि उन्होंने अपने जीवनकाल में मुक्तिदाता के दर्शन किये जो आने वाली पीढ़ी के लिए है। संत पापा ने कहा कि जब कोई नाती-पोता किसी बुजुर्गजन से बातें करने जाता तो वह उसे कहता है कि मैं नया जीवन प्राप्त करता हूँ,“मैं, अब तक इस जीवन में बना हूँ”। हमारे लिए बुजुर्गों के पास जाना उनकी बातों को सुनना कितना महत्वपूर्ण है। वे हमें अपने जीवन की बातों से वाकिफ कराते हैं जो दो पीढ़ियों में प्रौढ़ता लाती है। इस भांति हमारी पीढ़ी आगे बढ़ती है।

केवल बुजुर्गावस्था की आध्यात्मिक हमारे लिए इस साक्ष्य को नम्रता और जोशीले ढ़ग से प्रस्तुत करती है जो सभों के लिए एक उदाहरण बनती है। बुजुर्गावस्था जहां हम आत्मा की संवेदनशीलता को पाते हैं पीढ़ियों के बीच से सभी ईर्ष्या, द्वेष, आरोप को नष्ट करती है क्योंकि ईश्वर का आगमन वर्तमान पीढ़ी में, अपनों के जाने से होता है। एक बुजुर्ग अपने खुलेपन में जीवन को युवा के हाथों में सौपता है, “अब मैं शांति में जा सकता हूँ”। बुजुर्गावस्था की आध्यात्मिक संवेदनशीलता, प्रतिस्पर्धा और पीढ़ियों के बीच संघर्ष को विश्वस्त और निश्चित रुप में तोड़ने हेतु सक्षम होती है। यह मनुष्य के लिए असंभव है लेकिन ईश्वर के नहीं। और हमें आज आत्मा की संवेदनशीलता, आत्मा की प्रौढ़ता, बुजुर्गों के ज्ञान, आत्मा में उनकी प्रौढ़ता की जरुरत है जो हमारे जीवन को आशा से भर देता है। 

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30 March 2022, 15:57