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यूनान में संत पापा का पवित्र मिस्सा यूनान में संत पापा का पवित्र मिस्सा 

संत पापाः जीवन की मरूभूमि में मन-परिवर्तन

संत पापा फ्रांसिस ने यूनान की प्रेरितिक यात्रा के दूसरे दिन मेगारोन के सभागार में मिस्सा बलिदान अर्पित करते हुए आगमन के दूसरे रविवार, दो मुख्य बिन्दुओं पर प्रकाश डाला।

दिलीप संजय एक्का-वाटिकन सिटी

यूनान, रविवार, 5 दिसम्बर 2021 (रेई) संत पापा फ्रांसिस ने यूनान के मेगारोन कंसर्ट सभागार में मिस्सा बलिदान अर्पित करते हुए आगमन काल के दो विषयवस्तुओं मरूभूमि और मनपरिवर्तन पर चिंतन किया।

संत पापा ने मरूभूमि की चर्चा करते हुए कहा कि संत लूकस इसे विशेष रुप में हमारे लिए प्रस्तुत करते हैं। वे कैसर तिबेरियुस के शासन काल की चर्चा करते जब पोतियुस पिलातुस यहूदिया का राज्यपाल था। वे राजा हेरोद और उसके समकालीन राजनीतिक नेताओं की चर्चा करते हैं। वे धार्मिक नेताओं अन्नस और कैफस का जिक्र करते हैं। ऐसी परिस्थिति में ईश्वर का वचन योहन बपतिस्ता के लिए मरूभूमि में सुनाई देता है। हम ईश्वर के वचनों को मरूभूमि के एकांत में रहने वाले व्यक्ति के लिए आता सुनते हैं। यह हमें इस बात से वाकिफ करता है कि ईश्वर कैसे हमें आश्चर्यचकित करते हैं। वास्तव में, ईश्वर अपने कार्यो के लिए नम्र और दीन-हीनों को चुनते हैं। मुक्तिविधान की शुरूआत येरुसालेम, ऐथेंस या रोम से नहीं अपितु मरूभूमि से हुई। यह विऱोधाभाव कार्य हमें यह प्रकट करता है कि हमारा शक्तिशाली होना, शिक्षित या प्रसिद्ध होना ईश्वर को खुश करने की गारंटी नहीं देता है, क्योंकि ये चीजें हममें घमंड उत्पन्न करती हैं और हम ईश्वर का तिरस्कार करने लगते हैं। इसके बदले हममें आंतरिक दरिद्रता की जरुरत है, और मरूभूमि इस दरिद्रता की ओर इंगित करता है।

ईश्वर की निगाहें हमारे सूखेपन में

संत पापा ने मरूभूमि पर गहराई से चिंतन करते हुए कहा कि आगमवक्ता योहन बपतिस्ता येसु के आने की तैयारी अगम्य, दुर्गम और खतरनाक स्थानों में करते हैं। साधारणतः संदेशों की घोषणा करने वाले महत्वपूर्ण स्थानों में जाते हैं जिससे वे आसानी से देखे जा सकें और वे बड़ी भीड़ को अपना संदेश दे सकें। इसके विपरीत योहन मरूभूमि में उपदेश देते हैं। उस सूखी, खाली धरती में जहाँ आंखें दूर तक चीजों की खोज करती हैं, ईश्वर की महिमा हमारे लिए वहाँ प्रकट होती है। नबी इसायस हमें मरूभूमि को समुद्र में बदलने, सूखी धरती में झरनों के फूट निकले की बात कहते हैं। यह हमारे जीवन की ओर इंगित करता है ईश्वर हमारे दुःख और अकेलेपन की ओर निगाहें फेरते हैं। जब हम अपनी सफलताओं में होते या केवल अपने बारे में सोचते तो हम ईश्वर तक नहीं पहुंचते हैं लेकिन वहीं हमारी कठिन परिस्थितियों में वे हमारे निकट आते हैं। वे हमारी मुश्किल की घड़ी में हमारे पास आते और हमारे खाली हृदय में अपने लिए स्थान तैयार करते हैं। वे हमारी आंतरिक मरूभूमि में हमारे पास आते हैं।

ईश्वर कोमलता में आते हैं

संत पापा ने कहा कि हम अपने जीवन की हर परिस्थिति में मरूभूमि में होने का एहसास करते हैं। यद्यपि ईश्वर हमें वहाँ अपनी उपस्थिति की अनुभूति प्रदान करते हैं। वास्तव में, संतोष का अनुभव करने वाले ईश्वर का स्वागत नहीं कर पाते हैं, बल्कि वे करते हैं जो निःसहाय या अयोग्यता का अनुभव करते। ईश्वर हमारे जीवन में अपने शब्दों के माध्यम, करुणा और कोमलता में आते हैं। “डरो मत, मैं तुम्हारे साथ हूँ, भयभीत मत हो, मैं तुम्हारा ईश्वर हूँ, मैं तुम्हें शक्ति प्रदान करूँगा (इसा.41.10)। मरूभूमि में उपदेश देते हुए योहन हमें इस बात की निश्चितता प्रदान करते हैं कि ईश्वर हमें मुक्ति देने आते हैं, वे हमें अपने निराशाजनक परिस्थिति से ऊपर उठाने आते हैं। ऐसा कोई भी स्थल नहीं जहाँ ईश्वर हम से मिलने नहीं आते। आज हम उन्हें अपने हृदय के निकट पाकर आनंदित होते हैं वे मरूभूमि को चुनते जहांँ वे हमसे प्रेम में मिलने आ सकें और हमारे छोटे होने के एहसास को नयी ऊर्जा से भर सकें। यह हमारे लिए कोई अर्थ नहीं रखता कि हम अपने में कैसे हैं बल्कि हमारे लिए महत्वपूर्ण यह है कि हम अपने हृदय को ईश्वर और दूसरों के लिए खुला रखते हैं। आप अपने जीवन के सूखेपन स्थिति से न डरें, क्योंकि ईश्वर उस स्थिति में आने से नहीं डरते हैं।

मन-परिवर्तन

मन-परिवर्तन पर संत पापा ने कहा कि योहन बपतिस्ता इस पर बहुत अधिक जोर देते हैं। यह शब्द भी हमारे लिए “तकलीफदायक” हो सकती है, जिसे हम सुनने की इच्छा नहीं रखते हैं। मन-परिवर्तन की बात हमें निरुत्साह कर सकती है हम सुसमाचार के अनुरूप अपने में मेल-मिलाप हेतु कठिनाई का अनुभव कर सकते हैं। यदि हम मन-परिवर्तन को नौतिक सर्वश्रेष्ठता की दृष्टिकोण से देखते, उसे अपने प्रयास से प्राप्त करना चहें, तो हम इससे अछूते ही रहते हैं। मुसीबत की जड़ यही है कि हम सोचते हैं कि सब कुछ हममें निर्भर करता है। इस प्रकार हम आध्यात्मिक रुप में दुखित और हताश हो जाते हैं। संत पापा ने कहा कि हम अपने में परिवर्तन लाना चाहते हैं, हम बेहतर होना, अपने गलतियों में सुधार लाना चाहते हैं लेकिन हमारा अनुभव यह होता कि हम पूर्णरूपेण इसके योग्य नहीं हैं और अपनी नेक इच्छाओं के बावजूद हम अपने में ठोकर खाकर गिर जाते हैं। हमारा अनुभव संत पौलुस की भांति होता है जो लिखते हैं, “मैं भलाई करने की सोचता हूँ लेकिन मैं नहीं कर पाता, बल्कि मैं जो बुराई नहीं करना चाहता वही करता हूँ” (रोम.7.18-19)। यदि अच्छाई जिसे हम करना चाहते नहीं कर पाते तो परिवर्तन का अर्थ हमारे लिए क्या हैॽ

परिवर्तनः अपने से परे जाना

संत पापा फ्रांसिस परिवर्तन हेतु शब्द “मेटानोएन” के बारे में जिक्र करते हुए कहा कि यह हमें “परे सोचने” अर्थात अपने सोचने के तरीके से परे, अपने आदतन दृष्टि से हट कर कार्य करने को दिखलाता है। हमारे सोचने के तरीके हमें अपने स्वार्थ तक ही सीमित कर देते हैं, हम बहुधा यही कहते हैं “हम चीजों को ऐसे ही करते आ रहे हैं” जो स्वार्थ में हमारी जड़ता और भय को व्यक्त करती है।

योहन बपतिस्ता परिवर्तन हेतु निमंत्रण देते हुए हमें वर्तमान परिस्थिति, हमारे व्यक्तिगत सोच-विचार से परे जाने को कहते हैं क्योंकि सच्चाई उससे भी बढ़कर है। हमारे लिए सच्चाई यही है कि ईश्वर इन सारी चीजों से बड़े हैं। परिवर्तन का अर्थ हमारे लिए उन बातों को नहीं सुनना है जो हमारी आशा को कम करती हैं जो हमें यह कहती हैं कि जीवन में कुछ नहीं बदलता है। यह उन बातों को अस्वीकार करना है जो हमें विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि थोड़े से ही संतुष्ट रहना उचित है। इसका अर्थ आंतरिक भय से समक्ष नतमस्तक होना नहीं है जहाँ सारी चीजें हमारे विरूद्ध दिखाई देती जो हमें कहती हैं कि संत बनना हमारे बस की बात नहीं है। हम सबकुछ सकते हैं क्योंकि ईश्वर सदैव हमारे साथ रहते हैं। हमें उन पर विश्वास करने की आवश्यकता है क्योंकि वे हमसे परे हमारी शक्ति हैं। सारी चीजें बदली हैं जब हम ईश्वर को पहला स्थान देते हैं। हमारे लिए परिवर्तन यही है। हमें ख्रीस्त के लिए अपने दरवाजे खोलने की जरुरत है जो हमारे जीवन में प्रवेश करते हुए चमत्कार करते हैं।

आशा की कृपा मांगें

संत पापा ने कहा कि हम ईश्वरीय कृपा के लिए प्रार्थना करें जिसके द्वारा सारी चीजें सचमुच बदल जाती हैं, जिनके द्वारा हम अपने भय, घावों से चंगाई प्राप्त करते, अपनी सूखी भूमि में जल स्रोतों को पाते हैं। हम आशा की कृपा हेतु प्रार्थना करें क्योंकि आशा हमारे विश्वास को पुनर्जीवित, करूणा को प्रज्जवलित करती है। आज विश्व रूपी मरूभूमि इसी आशा की प्यासी है।

अपने प्रवचन के अंत में संत पापा ने येसु ख्रीस्त में आशा और खुशी में बने रहने हेतु माता मरियम से मध्यस्थता प्रर्थना करने का आहृवान किया जिससे वे हमें अपनी तरह आशा के साक्षी और चहुँदिशा में खुशी बोनेवाले बनने में मदद करें। हम अपने जीवन के किसी भी मरूभूमि में क्यों न रहें हम एक साथ खुश रहें क्योंकि ईश्वर की कृपा हमारे साथ है, जहाँ वे हमें स्वयं में परिवर्तन लाने और विकास करने का निमंत्रण देते हैं।

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05 December 2021, 16:08