भारतीय शिक्षा नीति में कलीसिया की भूमिका को नज़रअन्दाज़ न करें
जूलयट जेनेवीव क्रिस्टफर-वाटिकन सिटी
नई दिल्ली, शुक्रवार, 2 अगस्त 2019 (ऊका समाचार): भारत के काथलिक धर्माध्यक्षों ने ख्रीस्तीयों के अधिकारों और योगदान पर चुप्पी की आलोचना करते हुए भारत सरकार द्वारा शिक्षा नीति पर तैयार एक मसौदे में कई बदलावों का प्रस्ताव किया है।
देश की शिक्षा प्रणाली में सुधार लाने तथा उसे आधुनिक बनाने के प्रयास में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने एनईपी 2019 यानि "राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019", शीर्षक से एक प्रारूप तैयार कर उसपर जनता की प्रतिक्रिया को आमंत्रित किया है।
25 जुलाई को भारतीय काथलिक धर्माध्यक्षीय सम्मेलन के शिक्षा कार्यालय के छः सदस्यीय प्रतिनिधिमण्डल ने मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल निशांक से मुलाकात कर उनके समक्ष एक 28 पृष्ठीय प्रस्ताव रखा।
आधारभूत मुद्दे शामिल नहीं
काथलिक शिक्षा कार्यालय के सचिव फादर जोसफ मानीपदम ने ऊका.न्यूज़.कॉम से कहा, "शिक्षा नीति मसौदा आधारभूत मुद्दों जैसे शिक्षकों की कमी, बुनियादी सुविधाओं जैसे पेयजल की कमी, स्वच्छता, स्वच्छ शौचालय आदि के अभाव को दूर करने में विफल रहा है।"
उन्होंने कहा, "शिक्षा नीति में स्कूल छोड़नेवालों की बढ़ती संख्या पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त, शिक्षा के व्यावसायीकरण, मध्यान्ह भोजन योजनाओं में भ्रष्टाचार और बच्चों को नियमित रूप से कक्षा में आने के लिए प्रोत्साहित करने जैसे मुद्दों की भी जांच की जानी चाहिये।"
मसौदे में ख्रीस्तीयों के योगदान का ज़िक्र तक नहीं
फादर मानीपदम ने बताया कि काथलिक कलीसिया भारत के कम से कम 30,000 शैक्षणिक संस्थानों का संचालन करती है, जिनमें स्कूलों से लेकर, महाविद्यालय, चिकित्सीय महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय शामिल हैं। उन्होंने शिकायत की कि शिक्षा के क्षेत्र में काथलिक कलीसिया के विशाल योगदान के बावजूद शिक्षा नीति मसौदे में ख्रीस्तीय समुदाय के योगदान का ज़िक्र तक नहीं है।
अल्पसंख्यकों के अधिकारों की नज़रअन्दाज़ी
इस पर भी उन्होंने आपत्ति जताई कि शिक्षा नीति मसौदे की तैयारी में विद्यार्थियों, शिक्षकों तथा शिक्षा प्रदान करनेवाले घटकों को शामिल नहीं किया गया जिसके परिणामस्वरूप यह "शैक्षणिक नीति से नहीं प्रशासनिक नीति बन कर रह गई।"
इस तथ्य की ओर भी उन्होंने ध्यान आकर्षित कराया कि कथित शिक्षा नीति में "धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों द्वारा शैक्षिक संस्थानों को स्थापित एवं प्रशासित करने के संवैधानिक अधिकारों को भी नज़रअन्दाज़ कर दिया गया है।"
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