सोवियत सेना से पुरोहिताई तक का सफर ˸ प्रशासन की छाया में विश्वास
उषा मनोरमा तिरकी-वाटिकन सिटी
"एक किशोर के रूप में मैं अपने जीवन का लक्ष्य पुरोहित बनना मानता था।" इसी वाक्य से विक्टर पोग्रेबनी की कहानी शुरू होती है। वे पुरोहित बन भी गये। उनका पुरोहिताभिषेक सात साल पहले यूक्रेन के कायईव में 7 जनवरी 2012 को हुआ। जब उनकी उम्र 66 साल हो चुकी थी। वे दादा बन चुके थे। उन्होंने अपने जीवन का अधिकतर समय सोवियत सेना के रूप में व्यतीत किया था।
फादर विक्टर की कहानी स्लोबोजिया–रासकोव गाँव से शुरू होती है जो ट्रांसनिस्ट्रिया के केंद्र में स्थित है और अभी भी मोल्दोवा गणराज्य के साथ विवाद में है। यह सोवियत संघ के पतन के बाद क्षेत्राधिकार का दावा करता है। इस छोटे गाँव ने कई काथलिक पुरोहितों और एक धर्माध्यक्ष को उत्पन्न किया है। उन में से एक हैं फादर विकटर। इस छोटे समुदाय ने हमेशा अपने विश्वास को साहस पूर्वक जीया है, यहाँ तक कि बिना अनुमति के एक गिरजाघर का निर्माण भी कर दिया है। यह सन् 1970 की बात है जब सब कुछ साम्यवादी शासन द्वारा नियंत्रित था।
विश्वास को खोये बिना फौज में भर्ती
विक्टर का एक पुरोहित बनने का ख्वाब उस दिन टूट गया, जब उसे सोवियत सेना की सेवा में भर्ती किया गया। उसे लगा कि वह अपना गाँव हमेशा के लिए छोड़ने जा रहा है। फौजी सेवा में अपनी नियमित अवधि पूरा कर लेने पर, विक्टर को बड़े पद पर नियुक्त किया गया और वे एक ऑफिसर बन गये। बाद में उन्होंने कैलिनिनग्राद में सैन्य स्कूल में भी भाग लिया।
अपने गाँव एवं सेमिनरी से दूर होने पर भी पुरोहित बनने की उनकी चाह बनी रही। वे बतलाते हैं कि फौज की नौकरी करने के बौवजूद उन्होंने अपना विश्वास नहीं खोया और उन सभी बातों को अपने दिल में संजोकर रखा, जिन्हें उनके माता-पिता ने सिखलाया था। उन्होंने कहा, "मेरा सम्मान किया जाता था और मेरी जिम्मेदारियाँ थीं। इसी दरमियान मेरी मुलाकात एक अच्छी लड़की से हुई। उनके साथ सन् 1970 में मेरी शादी हो गयी। मैं वेदी के सामने था और मैंने अच्छा पति बनने की प्रतिज्ञा की।
सुसमाचार की एक प्रति रखने के लिए रिपोर्ट दर्ज
फादर विक्टर बतलाते हैं कि कम्युनिष्ट शासन की संदेह भरी नजरों के बीच, सेना के सख्त ढांचे के भीतर अपने विश्वास को जीना बहुत मुश्किल था। "वह एक बुरा वक्त था जब मैं उत्तरी ध्रुव पर एक सैन्य सुविधा में सेवा कर रहा था और मेरे वरिष्ठों ने मेरे पास सुसमाचार की एक प्रति पाई थी। उसके बाद पुलिस को यह भी मालूम हो गई थी कि मैं अपने गाँव स्लोबोजिया–रासकोव में एक गिरजाघर के निर्माण को मदद कर रहा था। उन्होंने इसकी जानकारी मेरे अधिकारियों को दी और मुझसे सवाल पूछा गया। जब कभी मैं काथलिक गिरजाघर में मिस्सा पूजा में भाग लिया जो ऑफिस की दूसरी ओर थी, तब मुझे सावधानी बरतनी पड़ती थी, कि कहीं कोई न देख ले। मैं एक गुप्त काथलिक था, जो छिपा हुआ और डरता था। मैं खोजने की कोशिश करता था कि हमारे साथियों में से कहीं कोई दूसरा काथलिक मिल जाए किन्तु मैं अपने को काथलिक प्रकट नहीं कर सका।"
एक खुशहाल पारिवारिक जीवन
फादर विक्टर ने आगे बतलाया, "मेरा जीवन अपना आकार ले रहा था। मैं अपनी पत्नी से प्रेम करता था। हमारे दो बच्चे हुए, उनकी शादी भी हो गई और मैं तीन बच्चों का दादा भी बन गया, किन्तु मैं अपने भाई के रास्ते का अनुसरण करने में भी आनन्द महसूस करता था, जो एक पुरोहित थे।
विश्वास को जीने के लिए स्वतंत्र
जब कम्युनिष्ट शासन का पतन हो गया तब विक्टर के जीवन में एक नया मोढ़ आया। वह अपने विश्वास को स्वतंत्र रूप से जी सकता था और बिना भय अपने बच्चों को ख्रीस्तीय विश्वास की शिक्षा दे सकता था। फौज की सफल नौकरी के बाद वह सेवानिवृत हो चुका था। वह अपने परिवार में अपने बच्चों और नाती-पोतों के साथ खुशी से जीवन व्यतीत करने लगा। तब 2008 में उनकी पत्नी का देहान्त हो गया और उसने अपने आपको अकेला पाया। तब वह फिर एक बार अपने बचपन की याद करने लगा। पुरोहित बनने का ख्याब फिर से ताजा होने लगा। यह एक बुलाहट थी जिसने उसका पीछा कभी नहीं छोड़ा।
आग्रह करने पर काइव के धर्माध्यक्ष ने उसी साल सेमिनरी में उनका स्वागत किया। चार साल बाद 7 जनवरी 2012 को विक्टर फिर एक बार प्रभु की वेदी के सामने खड़े थे किन्तु इस बार पुरोहित अभिषेक के लिए। वे अपने पुरोहित भाई और परिवार के सभी प्रियजनों से घिरे थे।
"मैं उस समय की अपनी खुशी को बयां नहीं कर सकता।" अपने बचपन में विश्वास और स्लोबोजिया- रास्कोव समुदाय के जीवन की याद कर फादर विक्टर ने कहा। उन्होंने आगे कहा, "उस समय में अपनी पत्नी की भी याद कर रहा था कि वह मेरे इस नये चुनाव से स्वर्ग में सचमुच खुश होगी। सेमिनरी में अपना प्रशिक्षण शुरू करने से पहले मैं अपने बच्चों से सुनना चाहता था कि वे मेरे इस निर्णय के बारे क्या सोचते हैं। मैंने उनमें एक अनोखी समझदारी देखी। उन्होंने मेरे निर्णय को अधिक दृढ़ किया, जिसने एक पति और पिता के रूप में मेरे अतीत को नहीं मिटाया बल्कि एक बुलाहट को अधिक सुलभ बनाया, जिसके लिए एक उपयुक्त समय का इंतजार करना था और फौज की कठिन परीक्षा से होकर गुजरना था। पुरोहित अभिषेक के बाद काइव के धर्माध्यक्ष ने उन्हें एक पल्ली में रखा, जहाँ वे बड़े समर्पण के साथ एक पिता के समान सेवा देने लगे।
क्रिमिया में एक नया समुदाय
फादर विक्टर ने कहा, "किन्तु कठिनाई समाप्त नहीं हुई थी।" वास्तव में वे एक सोवियत सेनानी थे, एक रूसी नागरिक, जिसके कारण यूक्रेन में नहीं रह सकते थे, विशेषकर, उस समय जब रूस और यूक्रेन के बीच तनाव की स्थिति थी। इसलिए फादर विक्टर क्रिमिया चले गये और ओडेसा के धर्माध्यक्ष ने उन्हें सिनफेरोपोली पल्ली में रखा। इस तरह उन्होंने अपना मिशन जारी रखा।
घर वापसी
2019 में फादर विक्टर 73 साल के हो चुके हैं। उन्हें अपने जन्म स्थान स्लोबोजिया-रास्कोव से अब भी स्नेह था। जिसके कारण वे वहाँ लौटना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने किसिनौ के धर्माध्यक्ष अंतोन कोसा से सम्पर्क किया तथा पूछा कि क्या उन्हें अपने परिवार की भूमि, अपने जन्म स्थान में लौटने की अनुमति मिल सकती है? धर्माध्यक्ष उनकी बातों और उनके जन्म स्थान एवं अपने समुदाय में लौटने की बात से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने उन्हें बात करने के लिए अपने पास बुलाया तथा उन्हें अपने धर्मप्रांत के पुरोहितों से मिलाया। धर्माध्यक्ष ने कहा, "मैंने पाया कि एक व्यक्ति लम्बे समय तक, अपने दर्द भरे इतिहास से गुजरा किन्तु अपना जीवन समर्पित करने और अपने अनुभवों के बीच एक पुरोहित का साक्ष्य देने में खुश है। वह अपने कुछ समानों एवं सैनिकों के आवश्यक मनोभावों के साथ है किन्तु एक पुरोहित एवं पिता के रूप में एक महान एवं मददगार हृदय के साथ है।"
प्रभु द्वारा विस्मित
किसिनौ में पहुँचने के बाद फादर विक्टर ने सबसे पहले स्लोबोजिया–रासकोव जाकर अपने माता–पिता की कब्र के दर्शन किये। यह एक भावपूर्ण वापसी थी। जिसका अर्थ था, जीवन के बिखरे हुए टुकड़ों को एक-एक कर जोड़ना, जिसकी शुरूआत इसी समुदाय से हुई थी। इसी समुदाय में उनकी बुलाहट पनपी थी और उनकी यात्रा शुरू हुई थी जिसने से एक चक्र घुमाया था।
फादर विकटर ने फोटो की श्रृंखलाओं को देखा जिसमें पहले एक सैनिक और बाद में एक पुरोहित का फोटो था। उन्होंने कहा, "यदि हमें विश्वास के जीवन को जीना है तो हमें अपने आप को प्रभु के विस्मय से विस्मृत होने देना है। मैंने कभी नहीं सोचा था कि एक पुरोहित बन जाऊँगा। किन्तु यह सच है, प्रभु मेरे समान दीन व्यक्ति की प्रार्थना को सुनता है।"
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