हंगरी में मिस्मा बलिदान के दौरान संत पापा फ्रांसिस हंगरी में मिस्मा बलिदान के दौरान संत पापा फ्रांसिस  

संत पापाः येसु हमें पूछते, “मैं तुम्हारे लिए कौन हूँॽ”

संत पापा ने 52वें अंतरराष्ट्रीय युखारिस्तीय सम्मेलन के समापन मिस्सा में येसु के द्वारा शिष्यों को पूछे गये सवाल पर चर्चा करते हुए उनकी घोषणा करने, उनपर विचारमंथन करने और उनका अनुसरण करने का आहृवान करते हुए यूखारीस्त पर प्रकाश डाला।

दिलीप संजय एक्का-वाटिकन सिटी

वाटिकन सिटी, रविवार, 12 सितम्बर 2021 (रेई) संत पापा फ्रांसिस ने बुढ़डापेस्ट की अपनी प्रेरितिक यात्रा के दौरान नायकों के प्रांगण में 52वें अंतरराष्ट्रीय युखारिस्तीय सम्मेलन का समापन करते हुए पवित्र युखारिस्तीय बलिदान अर्पित किया।

संत पापा ने अपने प्रवचन में कहा कि येसु अपने शिष्यों से पूछते हैं, “तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँॽ” शिष्यों के लिए यह सवाल निर्णयक है जो उन्हें स्वामी के संग उनकी यात्रा को महत्वपूर्ण बनाता है। वे अब नवशिष्य नहीं रह गये थे बल्कि वे येसु को जानते थे। वे येसु के निकट थे, उन्होंने उनके बहुत से चमत्कारों को देखा था, वे उनकी शिक्षा से प्रभावित हुए थे और जहाँ कहीं भी वे गये उनका अनुसरण किया। फिर भी, वे उनके अनुरूप सोचने में असमर्थ थे। उन्हें येसु का अनुसरण करने और उनकी प्रशंसा करने में निर्णयक कदम लेने होते थे। येसु आज भी हम सभों की ओर व्यक्तिगत रुप में देखते और हम प्रत्येक से यह पूछते हैं, “वास्तव में, मैं तुम्हारे लिए कौन हूँॽ” मैं तुम्हारे लिए क्या हूँॽ यह सवाल हम सभों के लिए है जो हमें धर्मशिक्षा के अनुरूप शीघ्रता में एक सटीक उत्तर की मांग नहीं करता बल्कि यह हम सभों के व्यक्तिगत जीवन में एक विशेष जवाब की मांग करता है।

हमारा उत्तर शिष्यों के रुप में हमें नवीन बनाता है। यह तीन कदमों में होता है जिसे शिष्यों ने लिया जिसे हम भी ले सकते हैं। यह येसु के बारे में घोषणा करना, उनके बारे में विचारमंथन करना और उनका अनुसरण करना है।

येसु के बारे में घोषणा करना

संत पापा ने कहा कि येसु पूछते हैं, “तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँॽ” पेत्रुस सभों की ओर से उत्तर देते हैं, “आप ख्रीस्त हैं” पेत्रुस थोड़े शब्दों में सही जबाब देते हैं, उनका उत्तर सही है, लेकिन येसु आश्चर्यजनक रुप में उन्हें इसकी चर्चा किसी से नहीं करने को कहते हैं। क्यों इस तरह का एक कट्टर प्रतिबंधॽ इसका एक निश्चित कारण था, येसु को ख्रीस्त, मसीह कहना अपने में सही है लेकिन यह अपनी पूर्णतः में नहीं पहुंची थी। यहाँ हम एक जोखिम को पाते हैं जो सदैव झूठी मसीहीवाद की घोषणा करता है जो ईश्वर की ओर से नहीं अपितु मनुष्य को ओर से आता है। उस घटना के बाद येसु अपनी असल पहचान, “पास्का” रहस्य को जिसे हम यूराखरीस्त संस्कार में पाते हैं धीरे-धीरे प्रकट करते हैं। वे अपनी प्रेरिताई के बारे में कहते हैं जो पुनरूत्थान की महिमा में अपनी चरम को प्राप्त होगी लेकिन यह क्रूस के अपमान से होगा। दूसरे शब्दों में यह ईश्वरीय प्रज्ञा के अनुरूप प्रकट किया जायेगा जिसके बारे में संत पौलुस कहते हैं,“यह प्रज्ञा न तो इस संसार की है और न ही इस संसार के अधिपतियों की”(1 कूरि.2.6)। येसु, मसीह के रुप में अपनी इस पहचान को लेकर चुप रहने को कहते हैं लेकिन क्रूस के बारे में नहीं जो उनकी प्रतीक्षा कर रहा होता है। वास्तव में, सुसमाचार लेखक इस बात पर गौर करते हैं, कि येसु इसके बाद “खुले रुप में” शिक्षा (मर.8.32) देने लगते हैं कि मानव पुत्र को बहुत दुःख उठाना होगा, नेताओं, महायजकों और शास्त्रियों द्वारा ठुकराया जाना, मार डाला जाना और तीन दिन के बाद जी उठना होगा”(31)।  

येसु के कठोर वचनों के आगे हम भी एक तरह से विचलित होकर पीछ लौट सकते हैं। हम भी अपने लिए क्रूसित सेवक के बदले में एक शक्तिशाली मुक्तिदाता की आशा करते हैं। यूखारिस्त यहां हमें यह बतलाता है कि ईश्वर हमारे लिए कौन हैं। यह हमारे लिए केवल शब्दों में अभिव्यक्त नहीं होता बल्कि यह ठोस कार्य के द्वारा हमारे लिए व्यक्त होता है जहाँ ईश्वर अपने को रोटी के रुप में हमारे लिए तोड़ते हैं जो क्रूसित प्रेम स्वरूप दिया गया है। हम धार्मिक संस्कार की बातों के सुंयक्त हो सकते हैं लेकिन ईश्वर सदैव साधारण रोटी के रूप में अपने को हमारे लिए तोड़ते, बांटने हेतु तैयार रहते हैं, जिसे हम ग्रहण करते हैं। हमें बचाने के लिए ईश्वर दास बनें, वे हमें जीवन देने हेतु मृत्यु को स्वीकार करते हैं। येसु के वचनों से अपने को विस्मित होना हमारे लिए उचित है जो हमें दूसरे पायेदान पर ले चलता है।

येसु के संग विचारमंथन करना

येसु के वचनों को सुनते हेतु पेत्रुस की मानवीय प्रतिक्रिया स्वाभाविक है- जैसे कि जब हम अपने जीवन में क्रूस, दुःख-दर्द की बातों को देखते तो हममें प्रतिरोध की भावना जागृति हो जाती है। येसु को मसीह घोषित करने के तुरंत बाद पेत्रुस अपने स्वामी की बातों से भ्रमित हो जाते  और उन्हें उस मार्ग से विचलित करने की कोशिश करते हैं। पहले की भांति आज भी क्रूस अपने में मोहित या आकर्षित करने वाली कोई चीज नहीं है। यद्यपि यह हमें आंतिरक रूप में चंगाई प्रदान करता है। क्रूसित येसु के सामने खड़ा होते हुए हम अपने में एक आंतरिक संघर्ष का अनुभव करते हैं, यह “ईश्वर के सोचने” और “मानव के सोचने के तरीके” के मध्य हमारा कटु संघर्ष होता है। दूसरी ओर हम ईश्वर के सोचने में नम्रता भरे प्रेम को पाते हैं। वे चीजों को हमारे ऊपर नहीं थोपते हैं, यह अपने में डींग नहीं मारता और विजयवाद पर नहीं चलता बल्कि दूसरों की भलाई करने में अपने को कुर्बान करने को राजी हो जाता है। 

वहीं दूसरी ओर हमारी मानवीय सोच- दुनिया का ज्ञान है जो अपने में आदर और अपनी भलाई, प्रतिष्ठा और सफलता को प्राप्त करना चाहता है। इसमें व्यक्तिगत महत्व और शक्ति की प्रधानता होती है जो जितना हो सके दूसरों का ध्यान अपनी ओर खींचने की चाह रखता और दूसरों की आंखों में सम्मान पाने की खोज करता है। 

उस तरह की सोच से ग्रस्ति पेत्रुस येसु को किनारे ले जाते और उन्हें फटकारते हैं (32) हम भी येसु को अपने हृदय के “किनारे”, कोने में धकेल देते हैं और अपने को धर्मी और सम्मानजनक व्यक्ति मानने लगते हैं, हम येसु के विचारों से प्रभावित हुए बिना अपनी ही राहों में चलते रहते हैं। फिर भी येसु हमारे साथ जीवन के आंतरिक उथलपुथल में रहते क्योंकि वे हमें चाहते हैं जैसे कि उन्होंने अपने शिष्यों को चाहा जिससे हम उनका साथ रह सकें। हम एक ओर ईश्वर के विचारों और दूसरी ओर दुनिया के विचार को देखते हैं। यह धर्मी और अधर्मी होने का अंतर नहीं बल्कि सच्चे ईश्वर और स्वयं को ईश्वर के रुप में देखने का है। वह ईश्वर जो गुप्त रूप में क्रूस से शासन करता है झूठे ईश्वर से कितना दूर है जो अपनी ताकत के बल पर राज करने की चाह रखता है जिससे वह हमारे शत्रुओं को चुप कर सके। येसु दुनिया के शक्तिशाली और विजयी राजाओं से कितने अगल हैं जो केवल प्रेम में अपने को प्रस्तुत करते हैं। येसु हमें विचलित करते हैं वे विश्वास की घोषणा से संतुष्ट नहीं होते हैं बल्कि वे हमारी धार्मिकता को अपने क्रूस के सामने, पवित्र यूखारिस्त के सम्मुख परिशुद्ध करने की मांग करते हैं। हम पवित्र युखारिस्तीय संस्कार की आराधना करते हुए ईश्वर की कमजोरी पर चिंतन करते हैं। हम पवन यूखारिस्त की आराधना हेतु समय निकाले। हम जीवित रोटी येसु को इस बात के लिए अवसर दें कि वे स्वयं में डूबे रहने की प्रवृति से चंगाई प्रदान करें। वे हमारे हृदय को खोलें जिससे हम अपने को दूसरों के लिए दे सकें, वे हमें अपनी कठोरता और अपने लिए सोचने की भावना से मुक्त करें। अपनी मान-मर्यादा की सुरक्षा हेतु तर्क-वितर्क करने की कोढ़ रूपी गुलामी से वे हमें चंगाई प्रदान करें और हमें, वे स्वयं जहाँ कहीं भी जाते, अपने पीछे आने को प्रेरित करें। इस भांति हम तीसरे चरण पर आते हैं।

येसु के पीछे चलना

“हट जाओ शैतान” (33) अपने इस कठोर आज्ञा के द्वारा येसु पेत्रुस को अपने पीछे लाते हैं। येसु जब हमें कुछ करने की आज्ञा देते, तो वे हमें उसके लिए पहले कुछ देते हैं। पेत्रुस इस तरह पुनः कृपा को प्राप्त करता और येसु के पीछे हो लेता है। ख्रीस्तियों की यात्रा सफलता की ओर दौड़ना नहीं है, अपितु यह पीछे की ओर लौटते हुए शुरू होता है जहाँ हम हर चीजों के क्रेन्द में होने की आवश्यकता का अनुभव नहीं करते वरन अपने में स्वतंत्रता का एहसास करते हैं। पेत्रुस यह अनुभव करता है कि वह अपने येसु के केन्द्र बिन्दु में घिरा है न की असल येसु में। वह अपने में गिरता लेकिन एक के बाद एक क्षमा प्राप्ति द्वारा वह ईश्वर के मुखमंडल को स्पष्ट रुप से देखने के योग्य बनता है। इस भांति वह ख्रीस्त के लिए अपनी खोखली प्रंशसा से परे जाते हुए उनके सच्चे अनुकरण के योग्य बनता है। 

संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि येसु के पीछे चलने का अर्थ क्या हैॽ यह अपने पूर्ण विश्वास में येसु के संग जीवन में आगे बढ़ना है, इस बात का एहसास करते हुए कि हम सभी सभी ईश्वर की संतान हैं। यह स्वामी के कदमों का अनुसरण करना है जो सेवा करने नहीं अपितु सेवा करने आये (मर.10.45)। यह प्रतिदिन हमारे भाइयों और बहनों से मिलने हेतु बाहर निकलना है। यूखारिस्त हमें मिलन हेतु प्रेरित करता है जहाँ हम एक शरीर होने का अनुभव करते और स्वेच्छा से अपने को दूसरों के लिए तोड़ने हैं। हम यूखारिस्त में येसु से मिलन हेतु तैयार रहें जो हमें परिवर्तित करते हैं जैसे कि उन्होंने उन महान और साहसी संतों के साथ किया, जिनकी आप आराधना करते हैं। मैं विशेष कर संत स्तीफन और संत एलिजबेद के बारे में सोचता हूँ। हम उनकी तरह थोड़े से संतुष्ट कभी न हों, हम अपने को रीति और दुहरावे रूपी विश्वास तक ही सीमित कभी न रखें, बल्कि नये अपमान हेतु खुला रहें जो क्रूसित येसु और उनके पुनरूत्थान में, रोटी तोड़े जाने में है, जो दुनिया को नया जीवन देता है। इस भांति हम अपने में खुश रहते हुए दूसरे के लिए खुशी का कारण बनेंगे।

यह अंतरराष्ट्रीय युखारिस्तीय सम्मेलन हमारी एक यात्रा को खत्म करता है लेकिन उसके भी बढ़कर दूसरे की शुरूआत करता है। येसु के पीछे चलने का अर्थ आगे देखना है, कृपा का स्वागत करना और अपने रोज दिन के जीवन में येसु के सवाल से चुनौती लेना जिसे उन्होंने अपने शिष्यों के समक्ष रखा, तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँॽ 

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12 September 2021, 15:10