प्रभु प्रकाश महापर्व पर समारोही ख्रीस्तयाग अर्पित करते संत पापा फ्राँसिस प्रभु प्रकाश महापर्व पर समारोही ख्रीस्तयाग अर्पित करते संत पापा फ्राँसिस 

प्रभु प्रकाश महापर्व : ख्रीस्तीय प्रार्थना के लिए अधिक समय निकालें

संत पापा फ्राँसिस 6 जनवरी प्रभु प्रकाश महापर्व के दिन संत पेत्रुस महागिरजाघर में बहुत कम विश्वासियों के साथ ख्रीस्तयाग अर्पित किया। जहाँ प्रवचन में उन्होंने येसु आराधना हेतु तीन मुख्य विन्दुओं पर प्रकाश डाला।

दिलीप संजय एक्का -वाटिकन सिटी

वाटिकन सिटी, बुधवार, 6 जनवरी 2021 (रेई)- ख्रीस्तयाग प्रवचन में उन्होंने मत्ती रचित सुसमाचार पर चिंतन किया। सुसमाचार लेखक मत्ती हमें बतलाते हैं, मंजूषी जब बेतलेहम आये तो उन्होंने, बालक को मरियम के साथ देखा, और उन्होंने उसे साष्टांग प्रणाम किया। (मत्ती.2.11) ईश्वर की आराधना करना सहज नहीं है यह स्वभाविक नहीं होता है। यह हमसे निश्चित आध्यात्मिक परिपक्वता की मांग करता है जो अंतरिक रुप में एक लम्बी यात्रा के फलस्वरुप होती है। ईश्वर की आराधना हमसे स्वतः नहीं होती है। सच्चा मानव अपने में ईश्वरीय आराधना की जरुरत महसूस करता है लेकिन हम अपने लक्ष्य से भटक सकते हैं। वास्तव में, यदि हम ईश्वर की आराधना नहीं करते तो हम देवमूर्तियों की आराधना करने लगते हैं, हमारे बीच कोई बीच का मार्ग नहीं है या तो ईश्वर या देवमूर्तियाँ। एक फ्रांसीसी लेखक के शब्दों में यदि हम कहें तो, “जो ईश्वर की आराधना नहीं करता वह शैतान की पूजा करता है, इस भांति हम विश्वासी बनने के बदले मूर्तिपूजक बन जाते हैं।

हम कैसे ईश्वर के बारे चिंतन करें

 

वर्तमान परिस्थिति में ईश्वर के साथ अधिक समय व्यतीत करना, व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनों रूपों में हमारे लिए जरुरी है। हमें यह सीखने की जरुरत है कि हम कैसे ईश्वर के बारे में चिंतन कर सकते हैं। आराधना प्रार्थना के अर्थ को हमने थोड़ा खो दिया है इसे हमें पुनः सामुदायिक औऱ व्यक्तिगत रूप में नवीकृत करने की जरुरत है। अतः आइए आज हम इस विषय में मंजूषियों से सीखें उनके समान हम साष्टांग प्राणम करते हुए ईश्वर की आराधना करें। हम गम्भीरता में उसकी आराधना करें न कि हेरोद के समान जिसने कहा, "बालक का ठीक-ठीक पता लगाइए और पाने पर मुझे खबर दीजिए, जिससे मैं भी जा कर सके दण्डवत करुँ।" उसकी मंशा ठीक नहीं थी।

अपनी आंखें उठाना

आज की धर्मविधि में तीन वाक्य, “अपनी आंखें उठाना, यात्रा में निकल पड़ना और देखना”  हैं जो हमें अराधक के अर्थ को पूर्णरूपेण समझने में मदद करते हैं।

पहला वाक्य अपनी आंखें उठाना- यह हमारे लिए नबी इसायस से आता है। बाबीलोन की दासता से इस्रराएली जनता का वापस येरुसलेम आने पर वे अपनी चुनौतियों और कठिनाइय़ों को देखकर निराश हो जाते हैं, नबी उन्हें इन शब्दों के द्वारा संबोधित करते हैं, “अपनी आखें उठाओं और चारो ओर देखो (60.4)। वे उन्हें अपनी चिंताओं और शिकयतों को दूर ऱखने को कहते, उन्हें चीजों को विस्तृत दृष्टि से देखने, अपने बीच से तानाशाही दूर करने, केवल अपने बारे में सोचने और अपने तक ही सीमित होने के प्रलोभन से बाहर निकलने को कहते हैं। ईश्वर की आराधना करने हेतु हमें सबसे पहले “अपनी आंखों को उठाने” की जरुरत है। दूसरे शब्दों में हम अपने को उन चीजों में उलझाये न रखें जो आशा को खत्म कर देती है, हम अपने जीवन की मुसीबतों और कठिनाइयों को अपने जीवन का केन्द्रविन्द न बनायें। इसका अर्थ यह नहीं कि हम अपने जीवन की हकीकत को नकारे या अपने को इस बात से भ्रमित करें की सारी चीजें सही सलमत हैं। नहीं, बल्कि यह जीवन की मुसीबतों औऱ चिंताओं को एक नई निगाहों से देखना है, यह समझते हुए कि ईश्वर हमारे जीवन की कठिनाइओं से वाकिफ हैं, हमारी प्रार्थनाओं को सुनते और हमारी आंसूओं के प्रति उदासीन नहीं हैं।

कठिनाइयों के बावजूद ईश्वर पर विश्वास

इस तरह का देखना हमारे हृदय में कृतज्ञता के भाव उत्पन्न करता है। जीवन की सारी कठिनाइयों के बावजूद ईश्वर पर विश्वास करना अपने हृदय को उनकी आराधना हेतु खोलना है। वहीं जब हम केवल कठिनाइयों में ही विशेष रुप से केन्द्रित हो जाते और ईश्वर की ओर अपनी आंखें उठाना स्वीकार नहीं करते तो हमारा हृदय भय और अस्तव्यस्ता से भर जाता है, यह हममें क्रोध उत्पन्न करता, हम घबराहट, चिंता और असवाद के शिकार हो जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में ईश्वर की आराधना करना हमारे लिए कठिन हो जाता है। यदि ऐसा हो जाता तो हमें अपनी धारणाओं की परिधि को तोड़ने का साहस करना चाहिए और इस बात को पहचाना चाहिए की सच्चाई हमारी सोच से कहीं बड़ी है। अपनी आंखें उठायें और चारो ओर देखें। ईश्वर हमें सर्वप्रथम अपने में विश्वास करने को कहते हैं, क्योंकि वे सही में हमारी चिंता करते हैं। ईश्वर ने यदि खेत के फूलों को पहनाया जो आज बढ़ते और कल मुरझा कर आग में झोंक दिये जाते, तो क्या वे हमारी चिंता नहीं करेंगेॽ (लूका. 12.28)। यदि हम ईश्वर की ओर अपनी आखें उठा कर सारी चीजों को उनकी निगाहों से देखें, तो हम पायेंगे कि वे हमें कभी नहीं छोड़ते हैं। शब्द ने शारीरधारण किया (यो.1.14) और हमारे बीच सदैव निवास किया (मती.28.20।

सच्ची खुशी ईश्वर की निष्ठा में

जब हम अपनी निगाहें ईश्वर की ओर उठाते हैं तो जीवन की तकलीफें खत्म नहीं होतीं, लेकिन वे हमें उनका सामना करने हेतु शक्ति प्रदान करते हैं। आराधना के प्रथम मनोभाव, अतः ईश्वर की ओर “अपनी आंखें उठाना” है। हमारी आराधना उन शिष्यों की भांति होती है जिन्होंने ईश्वर में आशतीत एक नयी खुशी को पाया। दुनियावी खुशी धन, सफलता या ऐसी चीजों में है लेकिन जो खुशी हमारे लिए ईश्वर की ओर से आती वह ईश्वर की निष्ठा में है जो अपनी प्रतिज्ञाएँ कभी नहीं भूलते हैं चाहें हम किसी भी तकलीफ में क्यों न हों। पुत्रानुरुप कृतज्ञता और खुशी हमें ईश्वर की आराधना हेतु प्रेरित करता है जो हमारे लिए सदैव निष्ठावान बनें रहते और हमारा परित्याग कभी नहीं करते हैं।

यात्रा में निकल पड़ना

दूसरा वाक्य है एक यात्रा में निकल पड़ना । बालक येसु की आराधना हेतु मंजूषियों को एक लम्बी यात्रा करनी पड़ी। संत मत्ती हमें बतलाते हैं, ज्योतिषी पूरब से येरुसलेम आये और यह बोले, “यहूदियों के नवजात राजा कहाँ हैंॽ क्योंकि हमने उनका तारा उदित होते देखा है और उनका दण्डवत् करने आये हैं (मत्ती.2.1-2)। यात्रा अपने में एक परिवर्तन, बदलाव को सम्माहित करता है। एक यात्रा के बाद हम वही व्यक्ति नहीं रहते हैं। जिन्होंने एक यात्रा की है उनके जीवन में हम कुछ नयेपन को पाते हैं उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान नई बातों को सीखा, नये लोगों, नयी परिस्थितियों से मिला जो उन्हें मुश्किल और जोखिम भरी स्थिति में आंतरिक शक्ति से भर दिया। अपने आंतरिक परिवर्तन के बिना, जो एक यात्रा में निकलने से आती है कोई भी ईश्वर की आराधना नहीं करता है।

समय के साथ प्रगति

हम एक प्रक्रिया के फलस्वरुप ईश्वर के आराधक बनते हैं। अनुभव हमें यह बतलाती है, उदाहरण स्वरुप, पचासवें साल में हमारी आराधना तीसवें साल के भिन्न होती है। वे जो अपने को कृपाओं से संचालित होने देते समय के साथ प्रगति करते हैं बाहर हम बुजुर्ग होते, संत पौलुस कहते हैं, जबकि हमारा आंतरिक रुप हर दिन नया होता है (2 कुरू.4.16) जैसे-जैसे हम ईश्वर की आराधना को बेहतर रुप में समझते हैं। इस संदर्भ में हमारी असफलताएं, तकलीफें और गलतियाँ हमारे लिए अनुभव बनते हैं, वे बहुधा हमें इस बात का एहसास दिलाते हैं कि केवल ईश्वर ही हमारी आराधना के योग्य हैं, केवल वे ही हमारे जीवन की आंतरिक चाहतों और अनंत चाह को पूरा कर सकते हैं। समय के साथ जीवन की मुसीबतें और कठिनाइयाँ विश्वास के अऩुभव से हमारे हृदयों को परिशुद्ध करती, हम नम्र बनाते और ईश्वर के प्रति अधिक खुले होते हैं।

यात्रा से सीखें

ज्योतिषियों की भांति हम अपनी यात्रा से सीखें जहाँ हम कई असुविधाओं को पाते हैं। हम अपनी चिंताओं, असफलताओं और अपने गिरे हुए क्षणों से निराश न हों। बल्कि नम्रतापूर्वक स्वीकार करते हुए हम उन्हें येसु ख्रीस्त की ओर बढ़ने के अवसर बनायें। जीवन हमारा अपनी क्षमताओं की नुमाईश नहीं है बल्कि उसकी ओर यात्रा करना है जो हमें प्रेम करते हैं। हम अपने योग्यता को न दिखायें बल्कि नम्रता में ईश्वर की ओर आगे बढ़ें। अपने ईश्वर की ओर अपनी निगाहों को बनाये रखते हुए हम शक्ति प्राप्त करेंगे जो हमारी खुशी को नवीन बनाता है।

देखना

तीसरा वाक्य हैं देखना। अपनी आंखें उठायें, यात्रा में चलें, देखें। सुसमाचार लेखक हमें कहते हैं, घर के अंदर प्रवेश करते हुए उन्होंने बालक, मरियम को देखा और दण्डवत करते हुए उनकी आराधना की (मत्ती.2.10.11)। आराधना का तत्पर्य सम्मानित और बड़े लोगों को आदर देने से था। मंजूषियों ने यहूदियों के राजा की आराधना की। लेकिन उन्होंने वास्तव में क्या देखाॽ उन्होंने गरीब बालक और उसकी माता को देखा। लेकिन सूदूर देशों से आये हुए उन ज्ञानियों ने उस निम्न परिस्थिति में बालक के राजकीय उपस्थिति को पहचाना। वे उन दृश्यों को भी “देखने” के योग्य बनते हैं। वे घुटनों के बल झुककर बेतलेहम के बालक की आराधना करते और कीमती उपहार अर्पित करते हैं जो उनके हृदयों को दिखलाता है।

दृश्यमान चीजों से परे देखने की जरुरत

ईश्वर की आराधना हेतु हमें उन्हें दृश्यमान चीजों से परे देखने की जरुरत है जो हमें बहुत बार भ्रमित करते हैं। हेरोद और येरुसलेम के मुख्य निवासी जो दुनियादारी को दिखलाते हैं अपने में दिखावे और आकर्षित करनेवाली चीजों के गुलाम हैं। दुनियादारी केवल लुभवानी और आकर्षित करनेवाली चीजों में आसक्त हैं जो लोगों का ध्यान खींचती है। मंजूषिय़ों में हम यद्यपि इस बात को नहीं पाते हैं जिसे हम ईशशास्त्रीय सच्चाई स्वरुप परिभाषित कर सकते हैं, यह चीजों की वास्तविकता को निष्पक्ष रूप में देखना है, अंततः ईश्वर सभी आडंबर को दूर कर देते हैं। "देखने" का यह तरीका जो दृश्य के परे जाता है, हमें विनम्र और मार्मिक लोगों में, सरल परिस्थितियों में अक्सर छिपे हुए प्रभु को प्रेम करने के योग्य बनाता है। प्रभु विनम्रता में हैं, वे एक विनम्र बच्चे की तरह हैं, वे आडंबर का परित्याग करते हैं जो वास्तव में दुनियादारी की उपज है। हम अपने को चकाचौंध करनेवाली चीजों से मोहित होने न दें, वरन उन बातों की खोज करें जो सदैव बनी रहती हैं, हम ईश्वर को अपने जीवन में खोजें। संत पौलुस कहते हैं, “हमारी आंखें दृश्य पर नहीं, बल्कि अदृश्य चीजों पर टिकी हैं क्योंकि हम जो देखते हैं वे अल्पकालिक हैं, अनदेखी चीजें अनन्त काल तक बनी रहती हैं। (2 कुरू.4.18)।

सच्चे आराधक बनने में मदद करें

येसु हमें सच्चे आराधक बनने में मदद करें, हम उनके प्रेम को अपने जीवन के द्वारा प्रकट कर सकें। हम यह कृपा सारी कलीसिया के लिए मांगते हैं कि हम उनकी आराधना करना सीखें, उनकी पूजा सदैव करते रहें क्योंकि केवल ईश्वर आराधना के योग्य हैं। 

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06 January 2021, 13:32