आमदर्शन समारोह में विश्वासियों के साथ संत पापा फ्राँसिस आमदर्शन समारोह में विश्वासियों के साथ संत पापा फ्राँसिस 

जीवन और पृथ्वी के रक्षक बनें, संत पापा

संत पापा फ्रांसिस ने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर वाटिकन के संत दमासो प्रांगण में उपस्थित विश्वासियों और तीर्थयात्रियों को संबोधित करते हुए कहा कि एक-दूसरे की देखभाल और उस दुनिया के बारे में चिंतन करना महत्वपूर्ण है जिसमें हम रहते हैं।

दिलीप संजय एक्का-वाटिकन सिटी

वाटिकन सिटी, बुधवार, 9 सितम्बर 2020 (रेई)- संत पापा फ्रांसिस ने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर वाटिकन के संत दमासो प्रांगण में उपस्थित विश्वासियों और तीर्थयात्रियों को संबोधित करते हुए कहा, प्रिय भाइयो एवं बहनो सुप्रभात।

एक महामारी पर विजयी होना हमें एक-दूसरे की देख-रेख और चिंता करने की मांग करती है। हमें उन लोगों की सहायता करने की जरुरत है जो अधिक कमजोर, बीमार और बुढ़ापे से लाचार हैं। हम उन्हें अपने से अलग कर देते, उनका परित्याग करते हैं, जो अपने में खराब बात है। ये लोग- समाज के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं यद्यपि उनके सहयोग हेतु उन्हें कोई पहचान और पारिश्रमिक नहीं मिलती, जिनके वे हकदार हैं। मानव के रुप में एक-दूसरे की चिंता करना प्रकृति का एक स्वर्णिम नियम है जो अपने में स्वास्थ्य और आशा लेकर आती है (लौदातो सी,70)। बीमारों, जरूरतमंदों और परित्यक्तों की सेवा करना अपने में मानवीय और ख्रीस्तीय मूल्य हैं।

एक-दूसरे की चिंता

हमें अपने सामान्य निवास, पृथ्वी और उसके हर एक प्राणी की भी देख-रेख करनी है। हमारा जीवन और स्वास्थ्य पारिस्थितिकी के संग संयुक्त है जिसे ईश्वर ने सृजित करते हुए देख-रेख की जिम्मेदारी हमें सौंपी है (उत्प.2.15)। वास्तव में, उनका शोषण करना हमारे लिए एक बड़ा अपराध है जो हमें रोगग्रस्त करता है (एसी 8.66)। लेकिन इसकी रोकथाम की औषधि क्या हैॽ संत पापा ने कहा कि इसके दुरूपयोग का सबसे उत्तम रोधक सामान्य निवास पर विचारमंथन करना है। “यदि किसी ने इसकी सुन्दरता का बखान करना नहीं सीखा है तो हमें आश्चर्य नहीं कि वह बिना संकोच के सभी चीजों को उपभोग की वस्तु स्वरुप उपयोग करेगा” (215)। फिर भी हमारा सामान्य निवास, सृष्टि अपने में केवल “संसाधन” मात्र नहीं है। सभी जीव-जन्तु अपने में मूल्यवान हैं और हर एक जीवन अपने में “ईश्वरीय अद्वितीय प्रज्ञा और अच्छाई की किरणों को बिखेरता है” (सीसीसी. 339)। इस दिव्य प्रकाश को हमें खोजने की जरुरत है जिसके लिए हमें अपनी शांति में बने रहते हुए सुनने और उन पर विचारमंथन करने की आवश्यकता है। चिंतन के द्वारा भी हमारी आत्मा को चंगाई मिलती है।

चिंतन उत्तम दवाई

चिंतन के बिना हम असंतुलन के शिकार होते हैं जिसके फलस्वरुप हम मानव अपने को सृष्टि के केंद्र बिंदु में सभी प्राणियों से ऊपर समझते हैं। इस भांति हम धर्मग्रंथ बाईबल की गलत व्याख्या करते है जो हमें सृष्टि के दुरूपयोग की ओर अग्रसर करता है जहाँ वह अपने में घुटन का अनुभव करती है। यह शोषण हमारे लिए पाप है। अपने में यह विश्वास करते हुए कि हम सृष्टि के केन्द्र-बिन्दु में ईश्वर का स्थान लेते हैं, हम एकतामय ईश्वरीय योजना को नष्ट करते हैं। हम शोषक बन जाते और जीवन की देख-रेख हेतु अपनी बुलाहट को भूल जाते हैं। निश्चय ही हम पृथ्वी पर अपने जीवन के लिए कार्य करते हैं और हमें करना है जिससे यह विकासित हो। लेकिन कार्य करने का अर्थ नष्ट करना नहीं है वरन यह अपने में सेवा करने, देख-रेख करने को सम्माहित करता है। यह हमारी प्रेरिताई है (उत्प.2.15)। हम अपने सामान्य निवास की देख-रेख किये बिना जो हमारा स्वागत करती है भौतिक वस्तुओं में विकास नहीं कर सकते हैं। हमारी बेचारी धरती माता अपने विरूद्ध किये गये अन्याय के कारण शिकायत करती है। हमें अपने में परिवर्तन लाने की जरुरत है जिससे हम सृष्टि की देख-रेख कर सकें।

हमारे आमघर की देखभाल ही हमारा मिशन

संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि अतः चिंतन का यह आयाम हमारे लिए महत्वपूर्ण है जिसके फलस्वरुप हम पृथ्वी, सृष्टि को ईश्वर से मिले उपहार स्वरुप देख सकें न कि इसका दुरूपयोग अपने लाभ हेतु करें। जब हम चिंतन करते तो हम सृष्टि और दूसरों में उपयोगिता से बढ़ कर अन्य दूसरी बड़ी चीजों को पाते हैं। चिंतन हमें उपयोगिता के दायरे से परे ले चलती है। चिंतन करने का अर्थ इसकी सुन्दरता का दुरूपयोग करना नहीं है वरन इसे उपहार स्वरुप देखना है। यह हमें ईश्वर से मिले वस्तुओं के आंतरिक मूल्यों को देखने में मदद करती है। बहुत से धार्मिक गुरूओं ने हमें इसके बारे में शिक्षा दी है कि स्वर्ग, पृथ्वी, समुद्र और सारे जीव-जन्तु हमें सृष्टिकर्ता ईश्वर के निकट लाते और हम अपने को सृष्टि से संयुक्त पाते हैं। लोयोला के संत इग्नासियुस अपनी आध्यात्मिक साधना के अंत में, “ईश्वरीय प्रेम की अनुभूति हेतु चिंतन” में हमें कहते हैं कि ईश्वर अपने सृष्ट प्राणियों की ओर निहारते और आनंदित होते हैं, वे हम सारी सृष्टि में ईश्वर की उपस्थिति को देखने, स्वतंत्रता में उनकी सुन्दरता और कृपा को देखने तथा उनकी देख-रेख करते हुए उन्हें प्रेम करने को कहते हैं।

संत पापा ने कहा कि चिंतन हमें देख-रेख के मनोभाव को अपनाने हेतु मदद करता है जहाँ हम अपने को प्रकृति से तटस्थ नहीं रखते वरन हम उसे अपने जीवन का अंग समझते हैं। यह हमें सृष्टि के नायक स्वरुप उसकी सेवा करने न कि उसे नष्ट करने को प्रेरित करता है। जो इस तरह का चिंतन करते, वे न केवल प्रकृति की सुन्दरता पर आश्चर्यचकित होते बल्कि अपने को उस सुन्दरता का एक अहम हिस्सा समझते हैं, वे उसकी देख-रेख और उसकी रक्षा करते हैं। दूसरी बात जिसे हम न भूलें संत पापा ने कहा कि जो प्रकृति और सृष्टि पर चिंतन करना नहीं जानते वे लोगों की समृद्धि पर भी चिंतन करना नहीं जानते हैं। वे जो प्रकृति का दुरूपयोग करते हैं लोगों का भी दुरूपयोग करते और उनके साथ दास स्वरुप व्यवहार करते हैं। यह एक सार्वभौमिक नियम है। यदि आप प्रकृति पर चिंतन करना नहीं जानते तो लोगों की सुन्दरता पर चिंतन करना आप के लिए कठिन होगा, आप उन्हें भाई-बहनों के रूप में नहीं देख पायेंगे।

वे जो चिंतन करना जानते हैं वे अपने कार्यों में परिवर्तन लाते हुए धन की सुरक्षा हेतु कार्य करते हैं। वे नये उत्पादन और उपभोक्ता की आदतों का पाठ पढ़ाते और उसे प्रसारित करते हैं जिससे अर्थव्यवस्था का एक नया स्वरूप तैयार हो सकें जिससे सामान्य निवास और लोगों का सम्मान हो। चिंतन करनेवाले पर्यावरण के रक्षक बनते, वे अपनी पैतृक ज्ञान की संस्कृति को नये तकनीकी ज्ञान से संयुक्त करने की खोज करते हैं जिससे हमारे जीवन में निरंतरता बनी रहे।

सृष्टि के संरक्षक

वास्तव में, चिंतन और देख-रेख, ये दो मनोभाव हैं जो मानव समाज और सृष्टि के साथ हमारी उचित तालमेल को व्यक्त करते हैं। बहुधा सृष्टि के संग हमारा संबंध शत्रुओं की तरह होता है जहाँ अपने लाभ हेतु हम सृष्टि को नष्ट कर देते हैं। हम इस बात को न भूलें कि हमें इसकी कीमत चुकानी होगी। स्पानी भाषा की एक कहावत को उद्धृत करते हुए संत पापा ने कहा, “ईश्वर सदैव माफ करते हैं, हम यदाकदा माफ करते हैं, सृष्टि कभी माफ नहीं करती।” इसके साथ ही संत पापा ने अंटार्कटिका के दो बृहृद हिमखण्डों के प्रति अपनी चिंता जताई जो अमुंडसेन सागर में गिरनेवाले हैं जो कई आपदाओं को लानेवाला है। उन्होंने इस संबंध में भ्रातृत्व के भाव पर जोर दिया जो हमें सृष्टि की सुरक्षा हेतु आगाह करता है जिसके द्वारा हम जीवन और आशा के रक्षक बनते हैं। हम इस बात पर विचार करें कि अपनी आनेवाली पीढ़ी हेतु हम कैसा भविष्य छोड़ना चाहते हैंॽ

हम जो अपने सामान्य निवास के “रक्षक” बनते जीवन और आशा के रक्षक होते हैं। हम ईश्वर के द्वारा मिले उपहारों की सुरक्षा करते जिससे हमारी आनेवाली पीढ़ी उनका लाभ उठा सके। संत पापा ने विशेष रूप से आदिवासियों के प्रति अपनी कृतज्ञता के भाव प्रकट किये जो इस कार्य को बखूबी कर रहे हैं। उन्होंने उन आन्दोलनों, संघों, ख्याति प्राप्त समुदायों की भी याद की जो अपनी सांस्कृतिक मूल्यों और प्राकृतिक सीमाओं की सुरक्षा हेतु समर्पित हैं। ये सामाजिक सच्चाईयाँ सदैव प्रशंसनीय नहीं होती और कई बार इनका विरोध किया जाता है लेकिन सच्चाई यही है कि यह शांतिमय क्रांति, “सेवा की क्रांति” है।

संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि कोई हमें यह निर्देशित न करें कि मानव के रुप में हमारा उत्तरदायित्व क्या है। हममें से हर कोई “सामान्य निवास का रक्षक” बनें जिसके द्वारा ईश्वर की स्तुति होती है जिसके फलस्वरुप हम उनकी सृष्टि पर चिंतन करते और उसकी रक्षा करते हैं।

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16 September 2020, 15:12