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संत पापा फ्राँसिस धर्मशिक्षा देते हुए संत पापा फ्राँसिस धर्मशिक्षा देते हुए 

मानवीय गरिमा ईश्वर स्थापित, संत पापा

संत पापा फ्रांसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह में मानवीय गरिमा पर प्रकाश डाला।

दिलीप संजय एक्का-वाटिकन सिटी

संत पापा फ्रांसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर वाटिकन प्रेरितिक निवास की पुस्तकालय से सभों का अभिवादन करते हुए कहा, प्रिय भाइयो एवं बहनों, सुप्रभात।

महामारी का यह समय हमें इस बात से वाकिफ कराता है कि हम अपने में कितने संवेदनशील और एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। यदि हम एक-दूसरे की चिंता नहीं करते विशेषकर जो सबसे कमजोर और बीमार हैं जो अपने में प्रकृति को भी सम्माहित करती है तो हम विश्व को चंगा नहीं कर सकते हैं।

बुहत से लोग इस परिस्थिति में भी अपने जीवन और स्वास्थ्य की चिंता किये बिना रोगियों को मानवीय और ख्रीस्तीय पड़ोसी प्रेम का साक्ष्य प्रदान कर रहे हैं अपने में प्रशंसनीय है। यद्यपि कोरोना ही केवल ऐसी बीमारी नहीं जिससे हमें लड़ना है बल्कि इस महामारी ने पूरे मानव समाज में फैले बीमारियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट कराया है। संत पापा ने मानवीय स्वभाव के बारे में जिक्र करते हुए कहा कि कभी-कभी हम दूसरों को वस्तुओं के रुप में उपयोग करते और उन्हें फेंक देते हैं। इस प्रकार की प्रवृति व्यक्ति को अंधा बना देती और हम अपने में व्यक्तिगतवाद को बढ़ावा देते हुए क्रूरता में फेंकने की संस्कृति को वहन कर लेते हैं जो हमें चीजों का भोक्ता बना देता है (एभनजेली गैदियुम,53 लौदातो सी 22)।

मानव के प्रति ईश्वर के मनोभाव

विश्वास के प्रकाश में हम जानते हैं कि ईश्वर नर और नारी के प्रति एक अलग ही मनोभाव रखते हैं। उन्होंने हमारी सृष्टि वस्तुओं के रुप में नहीं की है लेकिन हम प्रेम पाने और प्रेम करने के योग्य बनाये गये हैं, उन्होंने हमें अपने प्रतिरुप बनाया है। (उत्पि.1.27) इस भांति ईश्वर ने हमें एक विशिष्ट सम्मान प्रदान किया है जहाँ हम ईश्वर से, अपने भाई-बहनों से और सारी सृष्टि से एकता में रहने हेतु बुलाये गये हैं। हम एकता में भ्रातृत्वपूर्ण जीवनयापन करने हेतु बुलाये गये हैं। एकता में रहने की यह योग्यता हमें इस पृथ्वी की देख-रेख करते हुए सृजनात्मक और जीवन का रक्षक बनता है (उत्पि.1.28-29,2.15, लौदातो सी. 67)। एकता के बिना हम जीवन के उत्पादक और इसके रक्षक नहीं बन सकते हैं।

महत्वकांक्षा एकता विनाशक

संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि सुसमाचारों में हम इस व्यक्तिवादी भावना को पाते हैं जहाँ येसु के शिष्यों याकूब औ योहन की माता (मत्ती. 20.20-38) अपने पुत्र के लिए उनसे दायें और बायें बैठाने की मांग करती है। लेकिन येसु सेवा की भावना और दूसरों के लिए अपना जीवन अर्पित करने, एक अलग ही दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। वे अपने इस तथ्य को दो अंधे व्यक्तियों के दृष्टिदान द्वारा सुदृढ़ करते हैं जो उनके अनुयायी बन गये (मत्ती.20.29-34)। जीवन में महत्वकांक्षी होना, दूसरों से बड़े होने की चाह मानवीय एकता को नष्ट कर देती हैं। यह दूसरों पर शासन करने का तर्क है। वहीं सद्भावना एक दूसरी बात है, यह एक सेवा है।

सद्भवना ईश्वरीय गुण

अतः हम ईश्वर से निवेदन करें कि वे हमें अपने भाई-बहनों के प्रति सतर्क रहने की दृष्टि प्रदान करें विशेषकर उनके प्रति जो दुःख सह रहे हैं। येसु ख्रीस्त के शिष्यों की भांति हम दूसरों के प्रति उदासीन और व्यक्तिवादी नहीं रह सकते हैं। ये दो मनोभाव सद्भावना या एकता के विरोधी हैं। एकता हमें दूसरों की ओर देखने का आहृवान करती जो जरूरत, तकलीफ की स्थिति में हैं अपने में हम हर व्यक्ति को मानव सम्मान प्रदान करना चाहते हैं चाहे वह किसी भी जाति, धर्म और भाषा का क्यों न हो। एकता हमें मानव सम्मान की ओर ले चलती जो ईश्वर द्वारा स्थापित की गई है जिसका केन्द्र-बिन्दु मानव है।

मानव स्वार्थ का प्रभाव

संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि द्वितीय वाटिकन महासभा इस बात पर जोर देती है कि मानव सम्मान अपरिहार्य है क्योंकि यह ईश्वर स्थापित है जहाँ हम सभी ईश्वर के प्रतिरुप गढ़े गये हैं (गौदियुम एत स्पेस,12) यह सामाजिक जीवन की धूरी है और जो दूसरे कार्य संचालन सिद्धांतों को निर्धारित करती है। आधुनिक संस्कृति में, व्यक्ति की अपरिहार्य गरिमा के सिद्धांत को सार्वभौमिक मानव अधिकारों की घोषणा कही गई है, जिसे संत पापा योहन पौलुस द्वितीय ने “मानव जाति के लंबे और कठिन रास्ते पर मील का पत्थर” और “मानव विवेक के उच्चतम भावों में से एक” परिभाषित किया है। अधिकार अपने में व्यक्तिगत नहीं वरन सामाजिक, लोकहित और देशहित से संबंधित हैं। मानव वास्तव में, अपने व्यक्तिगत सम्मान में सामाजिक प्राणी है जो त्रियेक ईश्वर के प्रतिरुप बनाया गया है। हम सभी सामाजिक मानव है जो सद्भवना में रहने हेतु बनाये गये हैं लेकिन हमारे स्वार्थ के कारण हमारी नजरे दूसरों की ओर, दूसरे समुदाय के लोगों की ओर नहीं जाती हैं जो हमें कुरूप, खराब और स्वर्थी बनाता है...यह हमारी एकता को नष्ट करती है।

विश्वासियों का उत्तरदायित्व

हमारा नवीकृत मानव सम्मान अपने में गंभीर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आशय है। अपने भाई-बहनों और सारी सृष्टि को प्रेम में पिता ईश्वर से मिले एक उपहार स्वरुप देखना हमें इसकी देख-रेख, चिंता और इसमें आश्चर्य करने को प्रेरित करता है। इस तरह एक विश्वासी के रुप में हम अपने पड़ोसियों को अपने एक भाई या बहन स्वरुप देखते हैं न कि कोई अपरिचित व्यक्ति स्वरुप। हम उन्हें सहानुभूति और करूणा की नजरों से देखते हैं न कि घृणा या तिरस्कार भारी निगाहों से।  विश्वास के प्रकाश में दुनिया पर हमारा चिंतन कृपा की मदद से हमें इसके विकास में प्रयत्नशील बनाता जहाँ हम अपनी सृजनात्मकता और उत्साह में अतीत की समस्याओं का समाधान खोजते हैं। हम अपनी क्षमताओं और योग्यताओं को जो हमें ईश्वर से उपहार स्वरूप मिले हैं विश्वास में निखारते हुए मानवता और सृष्टि की सेवा में सुपूर्द करते हैं।

विश्वास की जरुरत

ऐसा दौर जहाँ हम वायरस के इलाज हेतु काम कर रहे हैं, जो सभी पर लगातार हमला कर रहा है, विश्वास हमसे इस बात की मांग करती है कि हम मानव गरिमा के उल्लंघन और उदासीनता का सामना करने हेतु खुद को गंभीरता और सक्रिय रूप से प्रतिबद्ध करें, विश्वास स्वयं की चंगाई हेतु  हमेशा आवश्यक होती है जहाँ हम व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों तरह से अपने व्यक्तिवाद से ऊपर उठते हैं।

प्रभु हमें “ज्योति प्रदान करें” जिससे हम मानवीय परिवार के अंग होने का मर्म पुनः समझ सकें।  यह दृष्टि करुणा के ठोस कार्यों और हर व्यक्ति के सम्मान में परिलक्षित हो जिससे हम सामान्य घर की देखरेख और सुरक्षा कर सकें।

इतना कहने के बाद संत पापा फ्रांसिस ने अपनी धर्मशिक्षा माला समाप्त की हे पिता हमारे प्रार्थना का पाठ करते हुए सभों को अपने प्रेरितिक आशीर्वाद प्रदान किया। 

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12 August 2020, 14:36