आमदर्शन समारोह के दौरान संत पापा आमदर्शन समारोह के दौरान संत पापा  

धन की सार्थकता देने में है

बुधवारीय आमदर्शन समारोह में संत पापा फ्रांसिस ने संहिता की सातवीं आज्ञा “चोरी न करने” पर प्रकाश डाला।

दिलीप संजय एक्का-वाटिकन सिटी

संत पापा फ्राँसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर संत पेत्रुस महागिरजाघर के प्रांगण में विश्व के विभिन्न देशों से आये हुए तीर्थयात्रियों और विश्वासियों को ईश्वर की दस आज्ञाओं पर अपनी धर्मशिक्षा माला को आगे बढ़ते हुए कहा, प्रिय भाइयो एवं बहनों, सुप्रभात।

अपनी धर्मशिक्षा माला में आज हम संहिता की सातवीं आज्ञा पर पहुंचते हैं जो हमें “चोरी न करने” को कहती है।

यह आज्ञा हमें दूसरों की संपति का आदर करने को कहती है। ऐसी कोई भी संस्कृति नहीं है जो हमें चोरी करते हुए दूसरे के धन का दुरूपयोग करने को न्यायसंगत घोषित करता हो। हम अपनी मानवीय संवेदनशीलता में सदा दूसरों की धन-संपति की सुरक्षा का ख्याल करते हैं।

धन का अर्थ

संत पापा ने कहा कि हमारे लिए यह उचित होगा कि हम ख्रीस्तीय प्रज्ञा के आलोक में धन के अर्थ को और अधिक गरहाई से समझने का प्रयास करें। कलीसिया की सामाजिक धर्मशिक्षा में धन को सार्वभौमिक संपति के रुप में परिभाषित किया गया है। इसका अर्थ क्या हैॽ “दुनिया के शुरू में, ईश्वर ने धरती और इसमें व्याप्त सारी चीजों को मानव के हाथों सुपुर्द किया, जिससे वह उसकी देख-रेख करे, अपने कार्यों के द्वारा उसे अपने अधिकार में रखे और उसके प्रतिफलों का रसास्वादन करे। सृष्टि की चीजें सारी मानव जाति की भलाई हेतु बनाई गई हैं।” (2402) इसके साथ ही “धन की सार्वभौमिकता का स्थान प्रथम है यद्यपि सामान्य भलाई हेतु व्यक्तिगत संपति का आदर करने की जरुरत है, यह हमारा अधिकार औऱ कर्तव्य है।”(2403)

ईश्वर ने यद्यपि संसार को एक “श्रृंखला” के रुप में नहीं सजाया है। हम इसमें विभिन्नताएं, अलग-अलग परिस्थितियां, संस्कृति को पाते हैं जिनके द्वारा हम एक दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए जीवन यापन करते हैं। संसार अपने में खनिज संपदाओं से भरपूर है जिसके फलस्वरुप सभों की मूलभूल आवश्यकताओं की पूर्ति निश्चित रुप से की जा सकती है। लेकिन बहुत से लोग हैं जो दयनीय गरीबी में जीवन व्यतीत करते हैं, संसाधनों का उचित उपयोग नहीं होता और वे नष्ट हो जाते हैं। संत पापा ने कहा कि जिस तरह एक ही दुनिया है उसकी तरह मानवता भी केवल एक ही है। आज दुनिया की संपति कुछके लोगों के हाथों में है जबकि असंख्य लोग गरीबी का दंश झेल रहे हैं।

संपति का सामाजिक आयाम

यदि संसार में भूख व्याप्त है तो इसका कारण यह नहीं की खाने की कमी है, वास्तव में बाजार की मांग हेतु हम कई बार खाद्य सामग्री को नष्ट कर देते हैं। हम चीजों को फेंक देते हैं। वर्तमान परिवेश में हम स्वतंत्रता और उद्यमिता की दूरदर्शिता का अभाव पाते हैं जो पर्याप्त उत्पादन सुनिश्चित करते हुए एकजुटता का दृष्टिकोण अपनाता और निष्पक्ष वितरण सुनिश्चित करता है। कलीसियाई धर्मशिक्षा हमें यह भी कहती है,“मानव, सृष्ट वस्तुओं का उपभोग करते हुए, उन वाह्य चीजों का भी ध्यान रखें, जो न केवल उसकी व्यक्तिगत वरन सभों की उपयोगिता हेतु है जिन पर उसका अधिकार है, वे न केवल उसकी वरन सभों की भलाई हेतु है।”(2404) सभी संपति जो हमारी भलाई हेतु है उनका अपना एक सामाजिक आयाम है।

धनी होने का मापदण्ड देने में 

संत पापा ने कहा कि इस सकारात्मक संदर्भ में हम संहिता की सातवीं आज्ञा “चोरी न करो” के अर्थ को विस्तृत रुप में पाते हैं। “किसी वस्तु का स्वामित्व व्यक्ति को ईश्वरीय कार्य का एक संचालक बनाता है।” हममें से कोई भी पूर्णरुपेण किसी वस्तु का मालिक नहीं है, हम वस्तु के संचालक हैं। हमारे पास धन संपति का होना हमें उत्तरदायी बनाता है। “लेकिन हम अपने को धनवान मानते हैं...” यह हमारे उत्तरदायित्व को दिखलाता है और यदि हम ईश्वरीय योजना में उन वस्तुओं का उपयोग नहीं करते तो यह एक धोखाघड़ी की बात ब्यां करती है जो अपने में बहुत बड़ी बुराई है। मेरे पास जो है मैं उसी को दे सकता हूँ। संत पापा ने कहा कि यही हमारे धनी होने का मापदण्ड है। यदि मैं दे सकता हूं तो यह मेरे खुलेपन को दिखलाता है। हम किसी वस्तु को अपने में धारण करने के द्वारा धनी नहीं होते वरन् हम अपनी उदारता के द्वारा भी धनी बनते हैं। उदारता हमारे जीनव का एक कर्तव्य है जिसके द्वारा दूसरे जीवन का आनंद उठाते हैं। वास्तव में, “यदि मैं अपने जीवन में किसी वस्तु को बाँट नहीं सकता क्योंकि वह मेरी वस्तु है, तो मैं उस वस्तु का गुलाम हूँ”, संत पापा ने कहा। उस वस्तु का वश मुझ में चलता है और मैं उसका गुलाम बन जाता हूँ। अपने जीवन में धन-दौलत को प्राप्त करना हमें सृजनात्मक रुप में इसका उपयोग करने का आहृवान करता है जो हमारी उदारता को दिखलाता है जिसके फलस्वरुप हम प्रेम और अपनी स्वतंत्रता में विकासित होते हैं।

येसु ख्रीस्त, ईश्वर के पुत्र होने के बावजूद, “अपने को उस रुप में प्रस्तुत नहीं किया बल्कि उन्होंने हमारे लिए अपना सब कुछ निछावर कर दिया,(फिलि.2.6-7) उन्होंने हमें अपनी निर्धनता से धनी बनाया है।”  (1कुरु. 8.9)

प्रेम हमारा असल धन

मानवता अपने लिए और अधिक पाने को संघर्ष करती है लेकिन ईश्वर अपने को हमारे लिए खाली करते हैं, उन्होंने अपने को हमारे लिए क्रूस के काठ पर अर्पित करते हुए, हमारे लिए मूल्य चुकाया है। ये वस्तुएँ नहीं अपितु प्रेम है जो हमें धनी बनाता है। संत पापा ने कहा, “हमने लोगों को कई बार यह कहते हुए सुना है,“शैतान जेब से होकर प्रवेश करता है।” हम सर्वप्रथम धन के बारे में सोचते हैं, पैसा को प्यार करते, जो हमारे जीवन में संपति जमा करने की भूख जगाती और यह मिथ्याभिमान बन जाती है।” “मैं धनी हूँ औऱ मुझे इसका गर्व है। इस तरह अंत में यह हमें घमंडी बना देता है।” यह हमारे जीवन में शैतान के कार्य करने का तरीका है। हम उसे अपने जेब के मार्ग से प्रवेश करने देते हैं...।

धन का उयोग प्रेम हेतु

संत पापा ने कहा कि येसु ख्रीस्त हमें धर्मग्रंथ का मर्म समझाते हैं। “चोरी न करने” का अर्थ अपनी वस्तुओं से प्रेम करना और उन वस्तुओं का उपयोग जितना बन पड़े प्रेम करने में करना है। जब हम अपने जीवन में ऐसा करते तो हमारे जीवन में धन-संपति सही अर्थ में ईश्वर के उपहार बनते हैं क्योंकि जीवन धन-संपति जमा करने का समय नहीं वरन् प्रेम करने का है।

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07 November 2018, 15:14