लिथुवानिया के कौऊनास में संत पापा का मिस्सा लिथुवानिया के कौऊनास में संत पापा का मिस्सा 

कलीसिया होने का अर्थ

संत पापा फ्रांसिस ने लिथुवानिया की अपनी प्रेरितिक यात्रा के दूसरे दिन कौऊनास के संताकोस पार्क में यूखारिस्त बलिदान के दौरान अपने प्रवचन में कलीसिया होेने का अर्थ समझाया।

दिलीप संजय एक्का-वाटिकन सिटी

मिस्सा बलिदान के दौरान अपने प्रवचन में संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि संत मारकुस रचित सुसमाचार का सम्पूर्ण अंश येसु द्वारा अपने शिष्यों को शिक्षा देने का वृतांत प्रस्तुत करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि येसु ख्रीस्त येरुसलेम की राह में अपने शिष्यों को अपना अनुसरण करने के अपने विचार को नवीकृत करने का आहृवान करते हैं क्योंकि उनके पीछे आने का अर्थ, जीवन की कठिनाई और दुःख का आलिंगन करना है। सुसमाचार लेखक येसु के दुःखभोग का जिक्र तीन बार करते हैं। इन तीनों बार शिष्य अपने में आश्चर्यचकित होते और एक तरह से उसका विरोध करते हैं लेकिन येसु उन्हें जीवन की शिक्षा देना चाहते हैं।

ख्रीस्तीय जीवन क्रूस की अनुभूति

संत पापा ने कहा कि ख्रीस्तीय जीवन हमारे लिए क्रूस की अनुभूति लाती है जो बहुत बार असमाप्त होने जैसे दिखलाई देती है। हम से पहले की पीढ़ियाँ आज भी अपने जीवन में क्रूस के उस दुःख का अनुभव करते हैं जिन्हें निर्वासन का दंश झेलना पड़ा, जो फिर कभी वापस नहीं आये, वे उनके लिए एक तरह से शर्म का एहसास करते हैं जिन्होंने उन्हें धोखा दिया। प्रज्ञा ग्रंथ से लिया गया पहला पाठ उसी सतावट का जिक्र करता है।(प्रज्ञा. 2.10-12) हममें से कितनों का जीवन इतिहास इस पाठ से मेल खाता हैॽ हममें से कितने हैं जो अपने में यह अनुभव करते हैं कि हमारा विश्वास अपने में हिल गया क्योंकि ईश्वर हमारी सहायता हेतु नहीं आयेॽ लिथुवानिया का कोऊनास शहर इन अनुभूतियों का साक्ष्य देता है। हम अपने लिए संत याकूब के पत्र से लिये गये दूसरे पाठ के शब्दों को दुहरा सकते हैं, वे लोभी, हत्यारे और लड़ाई-झगड़ा करने वाले थे।(याकू.4.2)  

अतीत को स्वीकारते हुए आगे बढ़ना

संत पापा ने कहा कि शिष्य नहीं चाहते थे कि येसु उनसे क्रूस और दुःखों की चर्चा करें, वे अपने जीवन में कठिनाइयों और तकलीफों को झेलना नहीं चाहते थे। संत मारकुस हमें बतलाते हैं कि शिष्यों का ध्यान अन्य दूसरी बातों में था, वे अपने बीच में यह जानना चाहते थे कि उनके बीच कौन सबसे बड़ा है। संत पापा ने कहा कि शक्ति और व्यक्तिगत महिमा की भूख उन लोगों की निशानी है जो अपने अतीत की यादों से उबरने हेतु अपने को असफल पाते हैं। यही कारण है कि वे अपने वर्तमान जीवन में सक्रिय रुप से भाग लेते हैं। वे अपने में इन बातों पर तर्क-वितर्क करते हैं कि कौन अच्छा था, किसने बीते समय में अधिक निष्ठापूर्ण ढ़ग से कार्य किया, अधिकारों के उपयोग में दूसरों से कौन अधिक सही था। ऐसा करने के द्वारा हम अपने इतिहास को नकारते हैं, “जो अपने में गौरवशाली है क्योंकि यह बलिदान का इतिहास है, आशा और दैनिक जीवन के संघर्ष, सेवा और निष्ठा में व्यतीत किया गया जीवन है।(एंभनजेली गैदियुम, 96) यह हमारे जीवन में व्यर्थ और फलहीन मनोभाव को दिखलाता है यदि हम अपने को वर्तमान के निर्माण हेतु समर्पित नहीं करते क्योंकि यह हमें अपने लोगों के संघर्ष से अलग कर देता है। हम आध्यात्मिक “गुरूओं” की भांति नहीं हो सकते जो केवल दूर से बातें करते और यह कहते हैं “हमें क्या करना चाहिए”।

छोटे बालक का उदाहरण

येसु यह जानते थे कि उनके शिष्य किन बातों पर वाद-विवाद कर रहे हैं अतः वे उन्हें एक छोटे बालक का उदाहरण देते हैं जो उन्हें सबसे बड़ा होने औऱ बलिदान का परित्याग करने की भावना से निजात दिलायें। संत पापा ने कहा कि येसु आज हमारे सामने किसे प्रस्तुत करेंगेॽ हमारे बीच में सबसे छोटा और सबसे गरीब कौन होगा, जिसका हम अपनी स्वतंत्रता की 100वीं सालगिरह पर स्वागत करेंॽ यह कौन है जिसके पास हमें देने को कुछ नहीं है जो हमारी कोशिश और हमारे बलिदान को योग्य बना सकेंॽ उन्होंने कहा कि शायद ये हमारे बुजूर्ग और अकेले में पड़ लोग हैं या वे युवा जो अपने जीवन का महत्व नहीं समझते क्योंकि उन्होंने अपनी जड़ों को खो दिया है।

“उनके बीच” का अर्थ है, संत पापा ने कहा कि सभों के बीच एक ही दूरी, जिससे कोई यह न कहे कि मैंने नहीं देखा, कोई यह कहते हुए तर्क-वितर्क न करे कि “यह किसी दूसरे का उत्तरदायित्व” है क्योंकि “मैंने उनसे नहीं देखा।”

नदियों का उदाहरण

संत पापा ने लिथुवानिया की नदियों का उदाहरण देते हुए कहा कि विनियस शहर में विलनिया नदी का पानी नेरीस से मिलते हुए अपने नाम को खो देती है उसी प्रकार नेरीस, नेमान में मिलते हुए अपने अस्तित्व को खो देती है। यह हमें कलीसिया होने के अर्थ को बतलाती है जहाँ हम बिना भयभीत हुए अपने से बाहर जाने और अपने को दूसरे के साथ संयुक्त करने हेतु बुलाये जाते हैं, यहाँ तक कि उन परिस्थितियों में भी जहाँ हम अपने को कमजोर, परित्यक्त और हाशिए में पड़े हुए लोगों के लिए देते हुए अपनी जीवन की सारी चीजों को खोता हुआ अनुभव करते हैं। कलीसिया के जीवन में आगे जाना हमें रुककर अपने जीवन पर चिंतन करने की भी मांग करता है जहाँ हम अपने जीवन की बातों और चिंताओं को दरकिनारे करते हुए दूसरों की बातों को देखते, सुनते और उनके साथ चलते हैं जो सड़कों के किनारे छोड़ दिये गये हैं। यह हमारे लिए बहुधा ऐसा प्रतीत होगा कि हम ऊड़ाव पुत्र के पिता की भांति कार्य कर रहे हैं जो अपने बेटे के आने पर दौड़कर अपने घर का द्वार खोल देता है। वही दूसरी ओर हमें शिष्यों की भांति यह सीखने की जरूरत है कि छोटे बालक का स्वागत करने में हम स्वयं येसु ख्रीस्त का स्वागत करते हैं।

आशा रूपी ख्रीस्त की घोषणा

संत पापा ने कहा कि यही कारण है कि हम सभी आज यहाँ हैं। हम येसु को, उनके वचनों, मिस्सा बलिदान और छोटो लोगों में स्वागत करना चाहते हैं। हम उनका स्वागत करें जिससे वे हमारे अतीत की यादों को चंगाई प्रदान करें और वर्तमान में हमारे साथ रहें जो हमारे लिए कई चुनौतियों और संभावनाओं को लेकर आती है जिससे हम शिष्यों की तरह येसु का अनुसरण कर सकें। ऐसा कुछ भी नहीं है जो येसु के शिष्यों के रुप में हमें प्रभावित नहीं करता है। हम दूसरों की खुशी और आशा, दुःख और तकलीफों को देखकर अपने जीवन में प्रभावित होते हैं विशेषकर जो गरीब और दुःखी हैं। यही कारण है कि हम पूरी मानवता के साथ अपने को सच्ची एकात्मकता में पाते हैं। हम अपने जीवन को आनन्द में दूसरों की सेवा हेतु जीये जिससे येसु ख्रीस्त हमारी आशा को हम दुनिया में घोषित कर सकें। 

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23 September 2018, 13:31