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इराक के काराकोश में संत पापा का पोस्टर लगाते इराक के काराकोश में संत पापा का पोस्टर लगाते  

इराक के ख्रीस्तीय ˸ पिछली शताब्दी संक्षेप में

सदियों तक तुर्क शासन के बाद, एक सौ साल पहले इराक अपने आप में एक राजनीतिक ईकाई के रूप में उभरा। पिछली शताब्दियों में इराकी ख्रीस्तियों ने समृद्धि और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के समय को देखा किन्तु उन्हें भयंकर युद्ध एवं अत्याचार से भी होकर गुजरना पड़ा।

उषा मनोरमा तिरकी-वाटिकन सिटी

इराक, बृहस्पतिवार, 4 मार्च 21 (रेई)- इराक में संत पापा फ्रांसिस की प्रेरितिक यात्रा जो शुक्रवार को शुरू होनेवाली है, इराकी सम्राज्य की स्थापना के 100 साल पूरा होने की भी यादगारी मनायी जा रही है जिसमें पहले ब्रिटिश प्रशासन के अधीन (1921-19), उसके बाद संप्रभु राज्य के रूप में हशेमाइट राजा फैसल प्रथम और उसके उत्तराधिकारियों के अधीन।

बाद में, राजतंत्र समाप्त किया गया और कई तख्तापलट के बाद इराक गणराज्य को 1968 में बाथ पार्टी ने अपने हाथों लिया, जिसमें 1979 से 2003 तक सद्दाम हुस्साईन राष्ट्रपति रहे।

सद्दाम हुस्साईन के शासन काल में इराक को इराक–ईरान युद्ध (1980-1988) का सामना करना पड़ा, साथ-साथ यह खाड़ी युद्ध (1990-1991) से भी होकर गुजरा। सद्दाम हुसाईन का पतन अमरीका के नेतृत्व में इराक युद्ध (2003) से हुआ, जब देश ने बेहद अराजक वर्षों को झेला, यह अराजकता 2014 से 2017 के बीच तथाकथित इस्लामिक स्टेट के कारण अपनी चरम पर पहुँच गई थी।

वर्तमान में इसकी 40 मिलियन आबादी कोविद -19 महामारी द्वारा उत्पन्न गंभीर चुनौतियों का सामना करते हुए एक साथ आने का प्रयत्न कर रही है।

ख्रीस्तीय अल्पसंख्यक

विगत कई शताब्दियों में इराक के ख्रीस्तियों ने अपने पड़ोसी मुसलमानों के साथ शांतिमय एवं सौहार्दपूर्ण तरीके से जीवन व्यतीत किया।  

इराक एक धनी और समृद्ध देश था जिसमें कई ख्रीस्तीय स्कूल पश्चिमी धर्मसमाजी संस्थाओं द्वारा चलाये जा रहे थे। उन स्कूलों में उत्तम शिक्षा की दूर-दूर तक प्रशंसा की जाती थी। ख्रीस्तियों की उपस्थित इराक के संसद में भी थी।

फिर भी, इराक के ख्रीस्तियों को कई मुसीबतों एवं त्रासदियों का सामना करना पड़ा। इराक की आजादी के थोड़े समय बाद अस्सेरियाई ख्रीस्तियों (पूर्व की कलीसिया) को सीमेले (सेम्मेल) और उत्तरी इराक के अन्य गाँवों में नरसंहार का दुःख झेलना पड़ा जहाँ सैंकड़ों लोगों को मौत के घाट उतारा गया।

बाथ शासन के दौरान, निजी शिक्षा को समाप्त कर दिया गया जिसने ख्रीस्तियों को उनके अत्यधिक सम्मानित स्कूलों से वंचित कर दिया। उदाहरण के लिए, 1968 में सम्मानित अल-हिकमा विश्वविद्यालय से जेसुइटों को निष्कासित कर दिया गया था। इराक-ईरान युद्ध और खाड़ी युद्ध के बाद, एक आम जवाब था देश छोड़ने की कोशिश।

उत्तर में रहनेवाले ख्रीस्तियों ने केंद्रीय सरकार एवं कूर्द के बीच चुनाव करने में देरी का सामना किया। उनके लिए दोनों में से किसी एक का चुनाव करना बेहद संवेदनशील था, क्योंकि एक का चुनाव करने पर दूसरे दल के हमले का भय था।  

विगत दो दशक

2003 के इराक युद्ध के बाद विनाशकारी वर्षों के दौरान, कई इराकी ख्रीस्तियों जिनमें पुरोहित, धर्माध्यक्ष भी थे उनका अपहरण किया गया और उन्हें मार डाला गया।

हिंसक इस्लामवादी ख्रीस्तियों को भागने के लिए मजबूर करने लगे, उन्होंने उनके गिरजाघरों को बंद कर दिया। शहीदों में एक खलदेई काथलिक पुरोहित फादर रगहीद गन्नी ने 3 जून 2007 को, उन्हें भयभीत करनेवाले बंदुकधारियों से कहा था, "कैसे मैं ईश्वर के घर को बंद कर सकता"?  

दूसरे खलदेई पुरोहित फादर साद सिरोप हन्ना को 2006 में अपहरण किया गया था तथा 28 दिनों तक कैद में रखकर क्रूरता से प्रताड़ित करने के पश्चात्, फिरौती चुकाने के बाद रिहा कर दिया गया था। वे इस समय यूरोप के खलदेईयों के प्रेरितिक कुलाध्यक्ष के रूप में सेवा कर रहे हैं। धर्माध्यक्ष हन्ना ने इस मर्मभेदी कहानी को इराक में अपहृत – बगदाद में एक पुरोहित नाम की किताब में बयाँ किया है।   

2014 में आईएसआईएस ने मोसूल और आसपास के ख्रीस्तीय गाँवों पर कब्जा किया तथा ख्रीस्तियों को अपना समान लिए बिना भागने के लिए मजबूर किया।  

हजारों लोग कुरदिस्तान की राजधानी एरबिल भाग गये जहाँ के गिरजाघर जल्द ही शरणार्थी शिविरों में तब्दील कर दिये गये। आईएसआईएस को हटाये जाने के बाद, कुछ ख्रीस्तीय अपने घरों में वापस लौट गये हैं जबकि कुछ लोग अभी भी घर लौट नहीं पाये हैं। काराकोश एक बड़ा ख्रीस्तीय शहर है जहाँ आईएसआईएस के पूर्व करीब 50,000 थी जिसकी आधी आबादी वापस लौट गई है।

पिछले दशक में, इराक में ख्रीस्तियों की संख्या बहुत कम हो गई है। 1951 की जनगणना के अनुसार इराक में ख्रीस्तियों की संख्या 6.4 प्रतिशत थी जबकि आज करीब 0.5 प्रतिशत है।

सद्दम शासन काल में ख्रीस्तियों की संख्या 1-2 मिलियन थी जबकि यह अब 2,00,000 रह गई है और कई सामाजिक एवं आर्थिक चुनौतियों के कारण पलायन जारी है।

पोप फ्राँसिस, इराक के राष्ट्रपति एवं खलदेई कलीसिया के प्राधिधर्माध्यक्ष सभी सहमत हैं कि सदियों पुरानी ख्रीस्तीय अल्पसंख्यक समुदाय की उपस्थिति देश में आवश्यक है। संत पापा की इराक यात्रा का एक मूल कारण है इराकी ख्रीस्तियों को देश में रहने या यदि संभव हो तो अपने घर वापस लौटने के लिए प्रोत्साहित करना।  

आशा के चिन्ह

कई अंतरराष्ट्रीय संगठन और उदार संस्थाओं ने इराक के ख्रीस्तीय समुदाय की मदद की है उन्हें रूकने और अपने घरों एवं समुदाय का पुनः निर्माण करने में सहायता दी है।

दर्जनों पल्लियाँ आशा के केंद्र बन गये हैं जहाँ से आवश्यक वस्तुएँ एवं आध्यात्मिक मदद प्रदान की जाती हैं उदाहरण के लिए, उद्योग के लिए छोटे लोन, संघर्ष कर रहे परिवारों के लिए भोजन, सदमा के लिए चिकित्सा, बाईबिल का अध्ययन और बच्चों एवं वयस्कों के लिए धर्मशिक्षा आदि प्रदान किये जा रहे हैं।

आशा के दूसरे चिन्ह हैं इराकी संसद द्वारा क्रिसमस को एक राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया जाना, साथ ही, सदिस्तानी अभियान जिसमें अवैध रूप से कब्जा किये गए घरों और ज़मीनों को उनके ख्रीस्तीय मालिकों को लौटाना।

 

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04 March 2021, 15:48