संत अन्ना की पुत्रियों का मूलमठ जहाँ ईश सेविका माता बेर्नादेत एवं अन्य तीन धर्मबहनों के पवित्र अवशेष स्थापित किया गया है। संत अन्ना की पुत्रियों का मूलमठ जहाँ ईश सेविका माता बेर्नादेत एवं अन्य तीन धर्मबहनों के पवित्र अवशेष स्थापित किया गया है। 

माता बेर्नादेत्त एवं सहयोगियों के पवित्र अवशेष की घर वापसी की रजत जयन्ती

संत अन्ना की पुत्रियों के धर्मसंघ राँची ने स्थानीय कलीसिया के साथ मिलकर, 5 नवम्बर को अपनी संस्थापिका ईश सेविका माता मेरी बेर्नादेत्त प्रसाद किस्पोट्टा एवं उनकी तीनों सहयोगियों के पवित्र अवशेष की घर वापसी (हड़गड़ी) की रजत जयन्ती मनायी। संत अन्ना की पुत्रियों के लिए यह एक ऐतिहासिक एवं अविस्मरणीय दिन था।

उषा मनोरमा तिरकी-वाटिकन सिटी

राँची, बृहस्पतिवार, 5 नवम्बर 20 (वीएन हिन्दी)- संत अन्ना की पुत्रियों के धर्मसंघ राँची ने स्थानीय कलीसिया के साथ मिलकर, 5 नवम्बर को अपनी संस्थापिका ईश सेविका माता मेरी बेर्नादेत्त प्रसाद किस्पोट्टा एवं उनकी तीनों सहयोगियों के पवित्र अवशेष की घर वापसी (हड़गड़ी) की रजत जयन्ती मनायी। आदिवासियों का विश्वास है कि पूर्वजों के अवशेष की घर वापसी या हड़गड़ी के द्वारा उनकी आत्मा अपने लोगों के बीच होती तथा दैनिक कार्यों में उनकी मदद करती है।

संस्थापिका एवं तीन सहयोगी धर्मबहनों का जीवन

इस अवसर पर राँची के महाधर्माध्यक्ष फेलिक्स टोप्पो येसु समाजी ने राँची स्थित संत अन्ना के मूलमठ में समारोही ख्रीस्तयाग अर्पित किया और ईश सेविका माता मेरी बेर्नादेत एवं धर्मसंघ की प्रथम समुदाय की धर्मबहनों को श्रद्धांजलि अर्पित की।

उन्होंने मिस्सा के दौरान उपदेश में धर्मसंघ की संस्थापिता ईश सेविका माता मेरी बेर्नादेत एवं सह-संस्थापिकाओं की तुलना पके घड़ों से करते हुए कहा कि ईश्वर ने उनमें कृपा जल लबालब भर दिये थे और उसे उन्हें गाँवों में लोगों के बीच बांटने को कहा। इस कृपा को सबसे पहले उन्होंने अपने अंदर अनुभव किया, उसके बाद दूसरों को बांटा। महाधर्माध्यक्ष ने उनके गुणों की याद करते हुए कहा कि ईश्वर की कृपा से वे दीन और नम्र थीं। ईश्वर से प्राप्त प्रेरणा को जीना चाहती थीं। उनमें ईश्वर के प्रेम एवं धार्मिकता की गहरी लालसा थी। वे दूसरों को आगे बढ़ाना चाहती थीं, उनके दुःख तकलीफों को दूर करना चाहती थीं। इस तरह उनके हृदय में दया की भावना थी। उनमें किसी प्रकार की स्वार्थ की भावना नहीं थी।"

प्रेरणा के स्रोत

महाधर्माध्यक्ष ने धर्मबहनों को दिए संदेश में कहा है कि "यह हमारे लोगों एवं हमारे देश के प्रति उनका प्रेम ही था कि उन्होंने लोगों के एक दल को एक साथ लाया। मेरी उत्कट इच्छा है कि धर्मसमाज उनकी भावना में बढ़ता जाए, गरीबों के हित में चमके और सुसमाचार के प्रचार हेतु अपने आपको नवीकृत कर सके।"

राँची के सहायक धर्माध्यक्ष थेओदोर मस्करेनहास ने अपने संदेश में धर्मबहनों के लिए प्रार्थना करते हुए शुभकामनाएँ दी हैं कि वे अपनी संस्थापिका के मनोभाव से भर जाएँ और अपनी संस्थापिका के समान अपने सारे हृदय, सारी आत्मा एवं सारी शक्ति से प्रेम और सेवा करती रहें।"  

संत अन्ना की पुत्रियों के धर्मसंघ राँची की वर्तमान मदर जेनेरल सि. लिली ग्रेस तोपनो ने संदेश में कहा, "आज हमारी संस्थापिकाएँ और उनकी सहयोगी बहनें शारीरिक से हमारे बीच नहीं हैं किन्तु आध्यात्मिक रूप से वे हमेशा हमारे साथ हैं। वे हमारे कारिज्म के अनुसार हमारे मिशन में हमारा मार्गदर्शन करती हैं। फिर भी, उनके पवित्र अवशेष हमारे बीच है ताकि हम उनकी जीवित एवं प्रेमी उपस्थिति को महसूस कर सकें।जब हम उनकी हड़गड़ी की 25वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं हम करुणावान प्रभु को, इन आदर्श माताओं का दान करने के लिए धन्यवाद देते हैं। साथ ही संकल्प लेतीहैं कि ख्रीस्त के अनुसरण में हम उनके उदाहरणों पर चलेंगी।"  

हड़गड़ी की रजत जयन्ती

ईश सेविका माता मेरी बेर्नादेत प्रसाद किसपोट्टा एनं तीन सहयोगी बहनें - माता मेरी बेरोनिका, माता मेरी सिसिलिया और माता मेरी के अवशेषों को आदिवासी परम्परा अनुसार 5 नम्बर 1995 को बड़े धूमधाम से राँची स्थित कब्रस्थान टमटम से संत अन्ना धर्मसमाज के मूलमंठ में स्थापित किया गया था। इसकी यादगारी हर साल मनायी जाती है तथा संस्थापिका एवं उनकी सहयोगी बहनों के मनोभवों से प्रेरणा ली जाती है। ईश सेवक फादर लीबंस द्वारा 17 मार्च 1885 को सुसमाचार प्रचार हेतु छोटानागपुर में पाँव रखने के 12 साल बाद स्थापित यह पहला स्थानीय धर्मसंघ है। संत अन्ना की पुत्रियों के धर्मसंघ राँची की स्थापना 26 जुलाई 1897 को ईश सेविका माता मेरी बेर्नादेत प्रसाद किसपोट्टा ने की है जो एक आदिवासी बालिका थीं। धर्मसमाज में कुल 1,108 धर्मबहनें हैं जो भारत के 149 समुदायों में तथा इटली एवं जर्मनी में अपनी सेवाएँ दे रही हैं।

हड़गड़ी

आदिवासी संस्कृति में हड़गड़ी एक विशेष एवं महत्वपूर्ण स्थान रखता है। हड़गड़ी दो शब्दों से बना है - हड़ और गड़ी। "हड़" अर्थात् हड्डी या अवशेष, "गड़ी" अर्थात् गाड़ना या पुनःस्थापित करना। हड़गड़ी के द्वारा पुर्वजों के अवशेष को अपने पास लाया जाता है ताकि पूर्वजों की छत्रछाया एवं सुरक्षा सदैव परिवारवालों पर बनी रहे। हर प्रकार के रोग और जोखिमों से सुरक्षा मिले। परिवार की सम्पति की रक्षा हो और उनका सान्निध्य प्रत्येक सदस्य पर बनी रहे।

मुण्डा आदिवासी इस परम्परा को दूसरी शादी मानते हैं। यह प्रतीक है कि परिवार के सदस्यों, पुर्वजों, भली आत्माओं और पूरे ब्रहमाण्ड एवं परमात्मा के  बीच एकता है। ख्रीस्तीय परम्परा में इसे संतों की संगति कहा जाता है।   

 

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संत अन्ना की पुत्रियों के धर्मसंघ राँची की संस्थापिका ईश सेविका माता मेरी बेर्नादेत प्रसाद किसपोट्टा एवं सहयोगी बहनों की हड़गड़ी का जयन्ती समारोह
05 November 2020, 18:11