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संत पेत्रुस महागिरजाघर जहाँ नये संतों की घोषणा की जाएगी संत पेत्रुस महागिरजाघर जहाँ नये संतों की घोषणा की जाएगी 

संत मरियम त्रेसिया चिरामल और कलीसिया के चार नये संत

संत पापा फ्राँसिस रविवार 13 अक्टूबर को काथलिक कलीसिया में पाँच नये संतों की घोषणाकर, उन्हें कलीसिया के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित करेंगे और उनके महान सदगुणों एवं साक्ष्यों को विश्वव्यापी कलीसिया के सामने प्रस्तुत करेंगे। वे पाँच नये संत हैं - संत हेनरी न्यूमन, संत दोलचे लोपेस पोंतेस, संत जुसेपिना वान्नीनी, संत मारग्रिता बेस और संत मरियम त्रेसिया चिरामल।

उषा मनोरमा तिरकी-वाटिकन सिटी

संत मरियम त्रेसिया (1876-1926) का जन्म 26 अप्रैल 1876 को केरल के त्रिचूर जिला के पुथेनचिरा गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम थोमा और माता का नाम थंडा चिरामल मनकिदाय था। त्रेसिया की माँ अत्यन्त धार्मिक प्रवृति की थीं, जिनके मार्गदर्शन में वह धार्मिकता एवं पवित्रता में बढ़ती गयीं। संत मरियम त्रेसिया अपनी आत्मकथा में लिखती हैं कि अपने बचपन से ही वे ईश्वर को बहुत प्यार करती थीं। सप्ताह में चार दिन उपवास रखतीं और दिन में कई बार रोजरी विन्ती करती थीं। आठ साल की उम्र में उसे दुबली होती देख उनकी मां ने उनके उपवास एवं रात्रि जागरण की प्रार्थना को रोकना चाहा किन्तु त्रेसिया पीड़ित ख्रीस्त के समान बनना चाहती थी। जब वह दस साल की थी तभी उसने अपने कुँवारपन को ईश्वर को समर्पित कर दिया।  

बुलाहट की जांच

जब त्रेसिया केवल 12 साल की थी तभी उसकी माँ का देहांत हो गया जो उसके स्कूली शिक्षा का अंत था। वह अब अपने जीवन में बुलाहट की परख करने लगी। वह प्रार्थना के लिए एक छिपा जीवन जीना चाहती थी और 1891 में एक योजना बनायी कि चुपचाप घर से निकल जाए एवं पहाड़ में रहकर एकांत में प्रार्थना तथा उपवास करते हुए सन्यासी का जीवन व्यतीत करे। किन्तु यह योजना सफल नहीं हो पायी। उसके बाद वह अपने तीन साथियों के साथ गिरजा जाने एवं वहाँ सफाई करने और वेदी सजाने लगी। येसु के प्रति प्रेम के कारण वह उनके समान मेहनत और प्रेरिताई करना चाहती थी। अतः वह गरीबों की मदद, बीमारों की सेवा और अपने पल्ली के लोगों से मुलाकात करने एवं उन्हें सांत्वना देने लगी। वह कोढ़ एवं चेचक जैसे संक्रमक रोग से पीड़ित लोगों की भी सेवा करती थी, जिन्हें बहुधा उनके परिवारों और रिश्तेदारों द्वारा त्याग दिया जाता था क्योंकि उनके पास उनकी मदद करने का कोई साधन नहीं होता था। लोगों के मर जाने पर वह उनके अनाथ बच्चों की देखभाल करती थी। इस प्रकार केरल का यह वंचित गाँव मरियम त्रेसिया की उदार सेवा से काफी लाभान्वित हुआ।    

त्रेसिया और उनकी तीन साथियों ने प्रार्थना एवं प्रेरिताई का एक दल बनाया। पुरूषों के बिना घर से बाहर नहीं निकलने के रिवाज को तोड़ते हुए वह सड़कों पर निकली और जरूरतमंद परिवारों से मुलाकात की। समाज की परम्परा को तोड़ने के कारण उन्हें शिकायतों का सामना करना पड़ा। त्रेसिया ने पवित्र परिवार में येसु, मरियम और जोसेफ पर पूर्ण भरोसा रखा। उन्होंने कई बार उनके दर्शन किये तथा अपनी प्रेरिताई के लिए मार्गदर्शन भी प्राप्त किया। उन्होंने पापियों के मन परिवर्तन के लिए प्रार्थना और उपवास किया, उनसे मुलाकात की एवं पश्चाताप हेतु उनका आह्वान किया। उनका तपस्वी एवं पश्चातापी जीवन हमें प्राचीन काल के मठवासियों एवं सन्यासियों की याद दिलाती है। उन्होंने कई रहस्यात्मक वरदान प्राप्त किये, जैसे भविष्यवाणी करने, चंगा करने, दिव्य प्रकाश एवं मधुर सुगंध आदि। आविला की संत तेरेसा के समान वे भी बहुधा परमानंद और उत्तोलन महसूस करती थीं। शुक्रवार के दिनों में लोग मरियम त्रेसिया को देखने के लिए जमा होते थे क्योंकि उस दिन वह जमीन की सतह से ऊपर उठायी जाती और अपने कमरे की दीवार पर क्रूसित होने की मुद्रा में लटकती थी। पाद्रे पियो के समान उन्हें भी स्तिगमा (रहस्यामय घाव) प्राप्त था जिसको वे लोगों की नजरों से बचाकर रखती थी। उन्हें भी जीवनभर शैतानी हमलों और चिढ़ का सामन करना पड़ा।  

सन् 1902 से 1905 तक पुथेनचिरा के पल्ली पुरोहित फादर जोसेफ विथायाथिल ने धर्माध्यक्ष के आदेश पर त्रेसिया से अपदूत निकालने की कोशिश की, यह सोचकर कि वह शैतान की शक्ति से प्रभावित है। त्रेसिया ने बड़ी दीनता से धर्माध्यक्ष के आदेश को स्वीकार किया किन्तु अपदूत निकालने के कार्य ने कई लोगों के मन में मरियम त्रेसिया के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न किया। लोग उन्हें पापी समझने लगे। मरियम त्रेसिया को विश्वास एवं शुद्धता के लिए परीक्षाओं का भी सामना करना पड़ा और उन्हें आत्मा की अंधेरी रात से होकर गुजरना पड़ा। सन् 1902 से उनकी मृत्यु तक फादर विथायाथिल ने उनका आध्यात्मिक मार्गदर्शन किया। जिनके पास वे पूरी तरह दिल खोली और उनकी सलाहों को स्वीकारा एवं उनका पालन किया।       

पवित्र परिवार के धर्मसमाज की स्थापना

मरियम त्रेसिया ने अपने धर्माध्यक्ष से एकान्त प्रार्थनालय के निर्माण हेतु अनुमति मांगी किन्तु त्रिचूर के विकर अपोस्तोलिक मार जॉन मेनाचेरी ने पहले उसकी बुलाहट की जाँच करना चाहा। उन्होंने उन्हें नये धर्मसमाज फ्राँसिसकन क्लारिस्ट में प्रवेश करने की सलाह दी, मरियम त्रेसिया को नहीं लगा कि वह उस धर्मसमाज के लिए बुलायी जा रही है। 1912 में उन्होंने ओल्लूर के कार्मेलाईट धर्मबहनों के कॉन्वेंट में प्रवेश करना चाहा। यद्यपि धर्मबहनों ने खुशी से उनका स्वागत किया किन्तु वहाँ भी उन्होंने महसूस किया कि उसकी बुलाहट वहाँ के लिए नहीं थी। अंततः 1913 में मार अलेनचेरी ने एक प्रार्थनालय बनाने का निश्चय किया तथा अपने सचिव को उसकी आशीष के लिए भेजा। त्रेसिया अब वहीं रहने लगी और उनकी तीन सहेलियाँ भी उनके साथ आ गयीं। वे एकांत मठवासियों की तरह प्रार्थना और कड़ी तपस्या का जीवन जीती थीं। वे बीमारों को देखने जातीं एवं गरीबों की मदद करती थीं, चाहे वे किसी भी जाति या धर्म के क्यों न हों। धर्माध्यक्ष को लगा कि यह परिवारों की सेवा में एक नये धर्मसंघ की उत्पति है। अतः 14 मई 1914 को कानूनी रूप से धर्मसमाज की स्थापना हुई और इसका नाम "पवित्र परिवार का धर्मसमाज" (सीएचएफ), रखा गया। उसी दिन मरियम त्रेसिया ने अंतिम मन्नत भी लिया और उनकी तीन साथियों को नये धर्मसमाज में पोस्टुलन्ट्स के रूप में भर्ती किया गया।

नये धर्मसमाज का विकास

नये धर्मसमाज का कोई लिखित संविधान नहीं था। अतः धर्माध्यक्ष ने स्वयं अपने सुलोन (आज का श्रीलंका) स्थित समुदाय से बोरदेयुक्स की पवित्र परिवार की धर्मबहनों के लिए संविधान प्राप्त किया और उसे संस्थापिका को सौंप दिया। मदर मरियम त्रेसिया ने इस बात पर ध्यान दिया कि नये धर्मसमाज में इसका अच्छी तरह पालन हो जिसको वे बड़ी सावधानी से बढ़ा रही थीं। प्रथम विश्वयुद्ध के पहले और बाद के कठिन दौर में उन्होंने ईश्वर की कृपा पर पूर्ण भरोसा रखा और 12 से भी कम वर्षों में तीन नये कॉन्वेंट, दो स्कूल, दो हॉस्टेल, एक अध्ययन केंद्र और एक अनाथालय का निर्माण किया। बालिकाओं के लिए शिक्षा, मरियम त्रेसिया के कार्य में मुक्ति ईशशास्त्र था। उनकी सादगी, दीनता और विशुद्ध पवित्रता से कई लड़कियाँ प्रभावित होने लगीं। 50 साल की उम्र में जब उनका निधन हो गया तब धर्मसंघ में कुल 55 धर्मबहनें, 30 छात्रावास की बालिकाएँ और 10 अनाथ बच्चे थे। सह-संस्थापक फादर जोसेफ विथायाथिल ने उनकी मृत्यु के बाद 1964 तक धर्मसमाज को बढ़ने में साथ दिया। आज धर्मसमाज में करीब 1500 से अधिक धर्मबहनें हैं। जो केरल, उत्तरी भारत, जर्मनी, इटली और घाना में अपनी सेवाएँ दे रही हैं। धर्मसंघ में कुल 176 कॉन्वेंट 7 प्रोविंस और 119 नोविस हैं।   

मृत्यु और पवित्रता का यश

मदर मरियम त्रेसिया का निधन 8 जून 1926 को पैर में किसी चीज के गिर जाने से हुए घाव के कारण हुआ। मधुमेह के कारण उनका घाव ठीक नहीं हो पाया। मृत्यु के बाद मरियम त्रेसिया की लोकप्रियता बढ़ने लगी चूँकि वे स्वर्ग से, बीमार और जरूरतमंद लोगों की मदद, चंगाई दिलाने के द्वारा कर रही थीं। 1971 में ऐतिहासिक आयोग ने उनके जीवन और सदगुणों के आवश्यक सबूतों को एकत्र किया। 1983 में धर्मप्रांत की अदालत ने अनुमति दे दी। 28 जून 1999 को वाटिकन के संत प्रकरण परिषद ने मरियम त्रेसिया को ईश सेविका घोषित किया। 1992 में कई चमत्कारों में से एक चमत्कार की जाँच की गयी। यह चमत्कार मैथ्यू डी. पेल्लिसेरी के साथ हुआ था जिनका जन्म 1956 में टेढ़े पैर के साथ हुआ था। वह 14 वर्षों तक बड़ी मुश्किल से चल सकता था। 33 दिनों के उपवास और प्रार्थना के बाद पूरे परिवार ने उनके लिए मदर मरियम त्रेसिया की मध्यस्थता द्वारा अर्जी की। उसका दाहिना पैर 21 अगस्त 1970 को रात में सोते समय सीधा हो गया और उसी तरह 39 दिनों तक उपवास और प्रार्थना करने के बाद 28 अगस्त 1971 को उनका बायां पैर भी सोते समय सीधा हो गया। इस दोहरी चंगाई को भारत और इटली के नौ डॉक्टरों ने चिकित्सा विज्ञान के संदर्भ में अकथनीय बतलाया और इसे ईश सेविका मरियम त्रेसिया की मध्यस्थता द्वारा चंगाई माना गया। इस चंगाई के साथ ही 9 अप्रैल 2000 को उन्हें वाटिकन के संत पेत्रुस महागिरजाघर के प्राँगण में धन्य घोषित किया गया।

दूसरा चमत्कार

संत पापा फ्राँसिस ने मदर मरियम त्रेसिया की मध्यस्थता द्वारा दूसरे चमत्कार को भी स्वीकार किया। इस चमत्कार में मरणासन्न पर पड़े एक बालक की दादी ने उसकी छाती पर, हॉली फामिली की धर्मबहन से मरियम त्रेसिया के पवित्र अवशेष को रखकर प्रार्थना करने की मांग की। उसी समय से बच्चा सामान्य सांस लेने लगा और चंगा हो गया।

संत पापा फ्राँसिस 13 अक्टूबर को चार अन्य संतों के साथ मदर मरियम त्रेसिया को संत घोषित कर, विश्वव्यापी कलीसिया के सामने शांति और मेल-मिलाप हेतु उनके आदर्श एवं उनकी विशुद्ध पवित्रता को प्रस्तुत करेंगे।

कार्डिनल हेनरी न्यूमन

कार्डिनल हेनरी न्यूमन सच्चाई और पवित्रता के प्रेरित, अंगलिकन पुरोहित से काथलिक कार्डिनल बने। कार्डिनल न्यूमन के लिए सच्चाई की खोज ही जीने का एकमात्र कारण था और एक लम्बे चिंतन के बाद उन्होंने समझा कि सबसे गहरे सवाल का जवाब केवल ख्रीस्त की कलीसिया में मिल सकती है। वे जब ऑक्सफोर्ट में पढ़ा रहे थे तभी उनके मन में सवाल उठा कि क्या यह कलीसिया जिसकी शुरूआत एक राजा ने की है ख्रीस्त की सच्ची कलीसिया हो सकती है? इसका उत्तर उन्हें इटली की यात्रा में बीमार पड़ने पर प्रार्थना करते हुए अपने आप को पूरी तरह ईश्वर पर छोड़ देने और उनके प्रकाश द्वारा प्रेरित किये जाने के द्वारा मिला। उन्होंने गहराई से अध्ययन करने के बाद काथलिक कलीसिया में प्रवेश किया और सन् 1879 में संत पापा लेओ 13वें ने उन्हें कार्डिनल नियुक्त किया। इस तरह सच्चाई के लिए उनके अनन्त खोज एवं पवित्रता की राह पर, ने उनकी व्यक्तिगत यात्रा को पहचान दी गयी।   

संत जुसेपिना वान्नीनी

संत जुसेपिना वान्नीनी, संत कमिल्लो की पुत्रियों के धर्मसंघ की संस्थापिका हैं, जिन्हें बीमारों की सेवा के लिए विशेष रूप से याद किया जाता है। उन्होंने शारीरिक और आध्यात्मिक रूप से बीमार लोगों की सहायता करने का धरोहर छोड़ दिया है।  

संत दोलचे लोपेस पोंतेस

संत दोलचे लोपेस पोंतेस एक ब्राजीलियन धर्मबहन थीं जिन्हें सन् 1988 में नोवेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वे अपने समय की एक अत्यन्त लोकप्रिय महिला धर्मसमाजी थीं, जिन्होंने बालक येसु की संत तेरेसा से प्रेरणा लेते हुए छोटे कामों को बड़े प्रेम से किया। उनका जन्म सलवाडोर दी बाहिया में हुआ था। वह बचपन में ही अनाथ हो गयी थी और अपनी चाची ने उसकी देखभाल की। 18 साल की उम्र में उसने शहर के सबसे गरीब क्षेत्र का दौरा किया जिसने उसे बहुत प्रभावित किया और उसी समय ठान ली कि वह गरीबों के स्वागत हेतु एक घर का निर्माण करेगी।

प्रेम और सेवा की बुलाहट को महसूस करते हुए उन्होंने मरियम के निष्कलंक गर्भागमन धर्मसंघ में प्रवेश किया। उन्होंने श्रमिकों को शिक्षा दी और उनके लिए एक संघ का निर्माण किया। बीमार एवं जरूरतमंद लोगों में ख्रीस्त के चेहरे को देखा।

संत मारग्रीता बेस

संत मारग्रीता बेस कुँवारी एवं संत फ्राँसिस असीसी के तीसरे ऑर्डर की सदस्य थीं। उन्होंने पारिवारिक जीवन में प्रतिदिन के प्रयासों द्वारा प्रभु के पास पहुँचने की कोशिश की। मारग्रीता बेस का जन्म स्वीटजरलैंड में 1815 में हुआ था। वे किसान परिवार के सात बच्चों में से दूसरी बच्ची थी।  

उन्होंने प्रार्थना एवं मनन चिंतन के जीवन को अपनाया। वह हर दिन प्रार्थना करती थी और पल्ली के कार्यों में सहयोग देती थी और परिवारों से मुलाकात कर, उनके साथ प्रार्थना करती थी। वे अपना बाकी समय बच्चों को धर्मशिक्षा देने, बीमारों को देखने जाने, गरीबों की मदद करने में व्यतीत करती थीं। उन्होंने महसूस किया कि उनके लिए परिवार ही वह स्थान है जहाँ वह अपनी सेवा देने के द्वारा पवित्रता को जी सकती थी। उनके लिए यह जीवन आसान नहीं था क्योंकि परिवार के सदस्यों ने उनके प्रार्थनामय जीवन को नहीं समझा। उन्होंने सब कुछ को चुपचाप सहन किया और अंततः बीमार पड़ी और उनका निधन हो गया। उन्होंने ख्रीस्त की पीड़ा को गहराई से अनुभव किया।

आइये, हम भी पूरी कलीसिया के साथ मिलकर उनके महान जीवन के लिए ईश्वर को धन्यवाद दें और उनके आदर्शों को अपनाने के लिए कृपा की याचना करें। 

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12 October 2019, 17:16