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भारत के ख्रीस्तीय भारत के ख्रीस्तीय 

भारत के ख्रीस्तीय मनायेंगे दलित मुक्ति रविवार

भारत के दलित समुदाय के ख्रीस्तियों को उनके धर्म के कारण संविधान के विशेषाधिकार से अब भी वंचित रखा जाता है। रविवार 11 नवम्बर को भारत के विभिन्न ख्रीस्तीय समुदायों द्वारा एक साथ दलित मुक्ति रविवार (डीएलएस) मनाया जाएगा।

उषा मनोरमा तिरकी-वाटिकन सिटी

भारतीय काथलिक धर्माध्यक्षीय सम्मेलन की अनुसूचित जनजाति विभाग तथा भारत में कलीसियाओं की राष्ट्रीय परिषद (एनसीसीआई) ने 11 नवम्बर को दलित मुक्ति रविवार मनाने का निश्चय किया है। दलित मुक्ति रविवार की विषयवस्तु है, "मेरे और मेरे परिवार के लिए, हम प्रभु की सेवा करेंगे"। यह विषयवस्तु योशुआ के ग्रंथ से लिया गया है जिसे ओडिशा के कंधमाल जिले में ख्रीस्तीय विरोधी हिंसा की 10वीं यादगारी, 25 अगस्त के लिए भी लिया गया था।

अनुसूचित जनजाति विभाग के सचिव फादर देवासागायाराज एम. जाकारियास ने मैटर्स इंडिया से कहा, "दलित मुक्ति रविवार को मनाया जाना, पूरे भारत के ख्रीस्तीय समुदाय के लिए एक आह्वान है कि वह अपने विश्वास को नवीकृत करे तथा समाज में दलित आवाजहीनों की आवाज बनने हेतु जागृति उत्पन्न हो।" 

दलित कौन हैं?

दलित एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है "तोड़ा" अथवा "रौंद" हुआ। इसका प्रयोग भारत के उन लोगों के लिए किया जाता है जो चार-वर्णीय हिंदू जाति व्यवस्था से बाहर गिने जाते हैं। उन्हें पहले अछूत कहा जाता था। चूँकि दलित जाति व्यवस्था से बाहर गिने जाते हैं वे समाज से भी बहिष्कृत माने जाते हैं। इस तरह उन्हें त्यागा और वंचित रखा जाता तथा उनपर सदियों से सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक शोषण किये जा रहे हैं।   

भारत के संविधान में दलितों के लिए विशेष अधिकार एवं आरक्षण दिये गये हैं, खासकर, नौकरी तथा शिक्षा के क्षेत्र में ताकि उनके सामाजिक आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाया जा सके।

हालांकि, संविधान में 10 अगस्त, 1950 के राष्ट्रपति आदेश में कहा था कि "कोई भी व्यक्ति जो हिन्दू धर्म के अलावा दूसरे धर्म को मानता हो वह अनुसूचित जनजाति में गिना जाएगा।" बाद में इस आदेश में दो बार संशोधन किया गया, जिसमें सिक्ख (1956) और बौद्ध (1990) धर्मों को भी जोड़ा गया, किन्तु मुस्लिम एवं ख्रीस्तीय दलितों को मांग याचिका प्रस्तुत करने एवं प्रदर्शन करने के बावजूद उन्हें शामिल नहीं किया गया।

फादर जाकारियास ने कहा, "हम ईश्वर से प्रेम करने एवं दूसरों को भाई-बहन की तरह देखने के उसी मनोभाव से जुड़े हैं। भारत का संविधान व्यक्ति को धर्म मानने एवं उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। किन्तु वास्तविकता में हमारे दलित भाई-बहनों को अनुसूचित जनजाति के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है सिर्फ इसलिए कि वे ख्रीस्तीय हैं। इस प्रकार उनकी धार्मिक स्वतंत्रता को नकारा जाता है। 

कलीसिया में भेदभाव

फादर ज़ाकारियास ने दुःख व्यक्त करते हुए कहा कि दलित ख्रीस्तीय न केवल कलीसिया में किन्तु राज्य एवं समाज में भी भेदभाव का सामना करते हैं। ईश्वर ने सभी को अपने पुत्र-पुत्रियों के रूप में सृष्ट किया है तथा ख्रीस्त के समान बनने के लिए बुलाया है किन्तु वास्तविकता में, अपने भाई-बहनों के साथ भेदभाव कर, हम ईश्वर के सामने अजनबी बने रह जाते हैं।" 

उन्होंने बतलाया कि जाति को लेकर भेदभाव को समाप्त करने के लिए सीबीसीआई द्वारा कई आवश्यक कदम उठाये जा रहे हैं। इस संबंध में दलितों को सशक्त करने हेतु दिसम्बर 2016 में "जातीय भेदभाव एक गंभीर सामाजिक पाप" नीति को अपनाया गया था।   

दलित ख्रीस्तियों की आशा

1950 में राष्ट्रपति के आदेश का हवाला देते हुए, सीबीसीआई द्वारा भारत के सुप्रीम कोर्ट में, एससी अथवा बीसी के मुद्दे को बिल्कुल आगे नहीं बढ़ाया गया है। ख्रीस्तियों एवं मुस्लमानों को अनुसूचित जनजाति से बहिष्कृत मानते हुए उनके धर्म मानने की स्वतंत्रता को इन्कार किया जाता है।   

फादर जकारियस ने कहा कि ईश्वर गरीबों एवं हाशिये पर जीवन यापन करने वाले लोगों के साथ हैं यही हमारे लिए एक उम्मीद है। उन्होंने कहा, "आइए हम एक साथ रहने, प्यार करने और साझा करने तथा एक शांति और सामंजस्यपूर्ण समाज बनाने में भाग लेने के लिए एकजुट हों।" 

भारत के 2.3 प्रतिशत ख्रीस्तियों में 60 प्रतिशत ख्रीस्तीय दलित एवं आदिवासी समुदाय से आते हैं। 

 

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06 November 2018, 17:03